कहानीसंस्मरण
संस्मरण
शीर्षक: "एक अधूरा सफर"
मुझे नही मालूम था मेरी ज़िंदगी का न खत्म होने वाले इंतज़ार के सफ़र का अंत इस भीड़ से भरी लोकल ट्रेन के सफ़र पर भी खत्म हो सकता है।
वो मेरी प्रथम रेल यात्रा थी, मेरे जीवन का पहला अनुभव जो आज भी मेरे ह्रदय में किसी के स्नेह को श्वास तो दे रहा है परन्तु एक तीखी कसक के साथ..!
उस रोज पहली बार मैं उस भीड़ से भरे ट्रेन में सफर कर रही थी। ट्रेन में चढ़ते ही मुझे बायचांस खिड़की वाली सीट मिल गई। एक नज़र पूरी ट्रेन पर डाल कर अपने आस पास के लोगों को जांचने की कोशिश की तो जैसे मन किसी अज्ञात भय से भर गया..!
इन अजनबियों के साथ अकेली लड़की कैसे सफ़र कर सकती हैं..? परन्तु फिर दिमाग के किसी कोने से एक नये विचार ने दस्तक दी.. यहाँ सभी एक दूजे से अंजान है महज अपनी अपनी मंज़िल पाने के लिए ये सभी एक दूजे के हमसफ़र है बेशक़ कुछ क्षणों के लिये ही सही।
खुद को सम्भालती, समझाती खुद से ही बातें करती मैंने खिड़की के बाहर स्टेशन पर खड़े लोगों पर एक लापरवाह दृष्टि डाली..!
"आँटी जी आप यहाँ बैठ जाइये..!" मेरे सामने की सीट पर बैठा एक नवयुवक खड़ा होते हुऐ पास खड़ी एक महिला से बोला।
वो महिला मन्दिम मुस्कान के साथ उस नवयुवक को शुक्रिया बोल कर बैठ गई। तभी धीरे धीरे गाड़ी अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी जैसे जैसे गाड़ी आगे की ओर सरक रही थी उक्त महिला की बेचैनी और घबराहट उसके चेहरे पर अपना प्रहार करने लगी।
मैं कुछ पूछ पाती उस से पहले ही वो बोल पड़ी "बेटा आप जरा मेरी सीट पर बैठोगी प्लीज..?"
मेरी मूक प्रश्न दृष्टि ने उसे विनम्रता से निहारा..!
"मेरे हसबैंड स्टेशन पर पानी की बॉटल लेने गए थे.. गाड़ी चल दी है पर वो... आप चिंता न करो आँटी जी वो ट्रेन में चढ़ गये होंगें..! मैंने उन आँटी जी की बात को काटते हुये कहा और मुस्कुरा कर अपनी सीट से खड़ी हो उन आँटी जी की सीट पर बैठ गई जो सामने की खिड़की के साथ वाली थी।
वो आँटी जी लगातार बेचैनी भरी आँखों से अपने पति को खिड़की के बाहर खोज रही थी।
और मैं उन को धीरज बाँधा रही थी
अब ट्रेन पूरी रफ़्तार पर भी और उन आँटी जी के पति का कोई आता पता नही था।
उनकी आँखों से लग रहा था मानो कुछ समय पश्चात अब गंगा यमुना की लहरें अपना सेतु तोड़ कर सब कुछ बहा ले जायेगी।
"उषा.. पकड़ो इसे..!"
मेरे कंधे के ऊपर से गुजरते हुये पानी की बोतल थामे हाथ के मालिक का स्वर सुन मैं चौक गई और तत्क्षण ही आवाज की दिशा में देखा..!
आँटी जी और मैंने लगभग एक ही समय मे मुड़ कर एक चौकने वाली दृष्टि आवाज़ के मालिक पर डाली..!
जहाँ आँटी जी की आँखे खुशी से चमक गई, वही मेरी आँखों मे विस्मय के बादल छाने लगे.. वो चेहरा... शायद मेरे लिए अजनबी नही था।
मेरे ह्रदय की गति आपनी चरम सीमा पर थी। वो आज भी वैसे ही आकर्षित नज़र आ रहे थे हालांकि बहुत कुछ बदल चुका था फिर भी मानो कुछ क्षणों के लिये जीवन का सफ़र थम सा गया था..!
जहाँ उनके साँवले सलोने चेहरे की मुस्कान आज भी अपनी मनमोहकता बरकरार रखें थी वहीं उनकी उम्र की मांग ने उनकी आँखों पर चश्मा चढ़ा दिया था साथ ही चेहरे पर हल्की दाड़ी मूछ ने चेहरे पर रौनक बरकरार रखी हुई थी।
"बेटा थोड़ा सरक जाओ अपने अंकल को जगह दे दो" मेरे साथ वाली सीट खाली होते ही आँटी जी तुरंत बोल पड़ी।
"अंकल...!!!
आँटी जी की आवाज सुन कर मैंने सकपका कर अपनी नज़रें झुका ली
मैं चुप चाप आगे की ओर सरक गई और वो अपनी पत्नी को प्यार भरी मुस्कान से देखते हुये मेरे साथ वाली सीट पर बैठ गये।
मैंबार बार खुद को खिड़की से बाहर भागते दौड़ते पेड़ पौधें और प्रकृतिक दृश्यों में गुम करने की कोशिश कर रही थी परन्तु मेरी चोर नज़रें मुझे मेरे साथ बैठे आँटी जी के पति को देखने हेतु बाध्य कर रही थी।
मैं समझ नही पा रही थी क्या ये वही है या फिर महज़ मेरे ह्रदय का भ्रम है जो मुझे आँटी जी के पति में अपने बचपन की पहली पसंद नज़र आ रही थी।
मेरे दिल और दिमाग मे अच्छी खासी जद्दोजहद होने लगी।।
दिल अपनी मासूम सी ज़िद पर अड़ा था कि ये वही मेरे बचपन की पहली पसंद है परन्तु दिमाग मानने को तैयार नही था। दिमाग भी अपनी जगह सही था यदि ये वो ही है तो अब तक बातों का पिटारा कब का खुल चुका होता ... पर उन्होंने तो पहचाना तक नही..! शायद ये वो नही सोच कर मैंने अपने सर को हौले से झटका दिया और अपने दिमाग से सभी ताजा हुई बातों को विराम देने की कोशिश की..!
गाड़ी अपने गंतव्य पर पहुँच चुकी थी सभी यात्री एक एक कर ट्रेन से उतर रहे थे।
मैं जैसे ही ट्रेन से उतरी मेरे गले मे लिपटा मेरा दुपट्टा मेरे गले पर कसता हुआ महसूस हुआ..! मैंने एक हाथ से अपने गले पर कसते अपने दुपट्टे के कसाव को रोकते हुए घूम कर देखा।
मेरा दुपट्टा ट्रेन के दरवाजे पर निकली किसी नुकीली चीज़ में अटक गया था।
मैं दर्द से तड़प उठी आँखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा इससे पहले की मैं अपने होश खो कर गिर पड़ती तभी किसी के मजबूत हाथों ने मुझे सम्भल लिया, जल्दी से दुपट्टे को मेरे गले से निकाल कर फेंका ।
और गुस्से से जानी पहचानी सी एक प्यारी डाट लगा दी।
तुम आज भी वैसी की वैसी ही हो.. छोटी बच्ची..!
जब तुमसे दुपट्टा संभाला नही जाता तो क्यो तुम खुद को बड़ा साबित करने के लिये दुपट्टा ओढ़ती हो.. कब अक्ल से बड़ी होऊगी तुम..?
आप..!!!
मैं ने अपनी बन्द होती आँखों को खोलने की कोशिश करते हुऐ मंदिम मुस्कान से बोली।
पर मेरे आँखों के आगे का अंधेरा और गहराने लगा और वो अपने हाथ से मेरे दोनो गालों पर अपनी अंगुलीओ और अंगूठे के दवाब को बनाये हुये जोर जोर से चेहरे को हिलाने लगे।
उठो..! उठो..!!
बुआ जी उठो ना.. दादी बुला रही है..!!
मेरी भतीजी ने जोर से झकझोर कर मुझे जगाया..!
मेरी आँख खुली तो मै अपने बेड पर थी और दिल के किसी कोने में एक हल्की सी कसक के साथ दुनिया भर का सकुन उभर आया..!
अंकल जी..!!
चलो अच्छा है वो सपना था..!
©️पूनम बागड़िया "पुनीत"
(नई दिल्ली)
स्वरचित मौलिक रचना
बहुत प्रवाहमय ढंग से लिखी रचना, किंतु सपना संस्मरण की श्रैणी में कैसे आ गया ?
ओह!
माफ कीजियेगा आदरणीया..! संस्मरण को सपने के रूप में लिखने की कोशिश की..!????
माफ कीजियेगा आदरणीया..!
बहुत भावपूर्ण और संवेदनाओं से भरपूर स्वप्न..!!
सादर आभार सर ..