कविताअन्य
शहरी जीवन के चकाचौंध में,
मानव जब ऊब जाता है
तंग शहर की गलियों में
जब बैठ के मन घबराता है ।
तब मन का पंछी भाग
गांव की गलियों में आ जाता है, तब गांव हमें अपनाता है।।
शहरों की ये भीड़ -भाड़
ये जन समूह का कोलाहल
निर्वाध दौड़ती दिनचर्या
थक जाता सारा आलम
तब गांव के शीतल छाया में,
मन भाग -भाग कर जाता है
तब गांव हमें अपनाता है ।।
ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं
के बीच सड़क पर
सरपट दौड़ती जिंदगी
क्लांत पथिक के लिए
पुरवाई के झोंकों सा
सुकून दे जाता है
गांवो की अमराई के नीचे
क्लांत पथिक जब आता है
तब गांव हमें अपनाता है।।
घड़ी की सूइयों से
कदमताल मिलाती,
अथक सी जिंदगी
बदहवास दौड़ती
मशीनी जिंदगी से
तालमेल बिठाती
जब गांव के पनघट पर
जाती है निगाहें
तब दिल को सुकून दे जाता है, तब गांव हमें अपना अपनाता है
स्वरचित मौलिक
@अंजनी त्रिपाठी
26/10/2020
मिट्टी की भीनी खुशबू से ओतप्रोत
धन्यवाद सर