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"हबीब"
कविता
मत पूछ मुझ से हबीब मेरे
तू ही सही है
और बशर इस जहां में क्या रखा है
हिज्र-ओ-फ़ुर्क़त में हबीब के कभी बसर करने का इरादा भी नहीं है
तसव्वुर में हबीब हमारा देखा
अदू समझा जिसे मेरी हबीब निकली
विसाले-हबीब की बशर सदा हमको रहती आस है
मुलाक़ात हबीब से ख़्वाब में कम न थी
फ़िराक़े-हबीब
करते नहीं हैं याद हमको हबीब हमारे
मुकद्दस आयतें हो गईं यादें हबीब की
कैसे कहें के वो हमारा हमसफ़र हमदम नहीं
दीदार हबीब का काम आया
हालाते-हयात को बशर नसीब समझ बैठे
हालाते-हयात को बशर नसीब समझ बैठे
उसके हबीब की भी बातें सुनी
हबीब की रक़ीबों से रब्त-ए-शानाशाई निकली
दश्त-ए-शनासाई में हमको दोस्ती बड़ी हरजाई मिली
दूर ये तकरार हो
मुंतज़िर हबीब के
हबीब ने कमाल किया
हौसला खुदही का काम आता है
मिसाल होगा
हबीब मेरे बेहद नाराज़ भी हैं
तरस गए हैं तेरे सुनने को मधु बैन
तू ही सही है
इंतज़ार में हबीब के
कहां गया हबीब मिरा
रातों की नींद गंवाई है
रातों की नींद गंवाई है
इंतज़ार-ए-हबीब ताक़यामत रहेगा © डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"
अब तो 'बशर' याद ही नहीं
हबीब मिरे हंसकर तो दिखाना
बेवफ़ा निकला हबीब हमारा
मुश्क़िल का हल
रक़ीब भो नहीं पर वो मिरा हबीब भी नहीं
इतने क़रीब मिले
तेरे बग़ैर जीकर मैंने क्या मरना है
रूह फिर लौट आती है
पता ही नहीं कौन हबीब है कौन रक़ीब है
जिस्मों से इश्क़ 🥀
न हबीब का कोई पयाम है
वफ़ा-ए-मुहब्बत ना समझ लेना
हमारे लिए दुआ मांगने वाले ही हमारे क़ातिल निकले
हम इंसान भी न हुए वो खुदा हो गए
सुकूने-क़ल्ब हवा हुए के इतने ग़रीब हुए
वोह तबीब ओ हबीब तेरे हर मर्ज की दवा जानता है
हमारी उनसे वस्लो-मुलाक़ात ही दवा है
मुझे प्यार आता है तो बेशुमार आता है
जिंदगीसे भागकर आगे निकलने की न होड़कर
हमको हमारा खुदा मिल गया है
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