कविताअतुकांत कविता
चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया
रात्रि रास की बेला में
स्वामी आ बैठे मेरे पास
और भगवान के विग्रह से उतरी तुलसीदल माल
दे दी मुझे उपहार
मैंने परिहास में कमल पुष्प से
उनकी पीठ पर ताड़न किया
“मछली की रसिक हूं निमाई,
मत लाया करो माखन मिश्री का प्रसाद”
आनंदातिरेक से दमक रहा था मेरा मुख
लेकिन उस रात
उनके नेत्र स्थिर थे कहीं दूरस्थ
उन दिनों
अनंग के पुष्प-बाणों की वृष्टि
हम दोनों पर होती
और मैं महाप्रभु के गौरवर्ण को
तृषित नेत्रों से हृदयस्थ करती
उनके जवांकुसुम तेल से महकते
बालों को काढ़ती रहती
"मेरे से अब पृथक रहना होगा विष्णुप्रिया,
के अब दंड, कमंडलु, मृदंग
झांझ और मंजीरे ही मेरे सहचर"
महाप्रभु के इस प्रचंड कथन ने
प्रेमबंधन पर कर दिया
तीक्ष्ण कुठाराघात
अपनी प्रतिष्ठा में वह कितने थे शांत
आम्र पर बैठे शुक और सरिकाएं
प्रेम छंद रटते रटते
अकस्मात मौन हो गए
और नवद्वीप में तिमिर का प्रसार
अन्ततः मुझे सदैव स्मृति में रखने का
वचन देकर
वो हो गए रात में अंतर्ध्यान
“हरिबोल हरिबोल” कहते हुए
मन में सदैव एक भ्रांति कि
अपने सुकुमार हाथों से वो
सदैव अनुष्ठान करेंगे प्रेम यज्ञ का
और जीवन के विलक्षण वर्णनों में
यह वृतांत प्रख्यात होगा
किंतु, उनका "चैतन्य" हो जाना
सब कुछ "शून्य" कर गया
आज मरघट में,
उनको दृष्टिभर देख लेने की अपूर्ण अभिलाषा
चटचट जल रही है कपाल के संग
जो भी है, सदियों की प्रतीक्षा है
भस्म होने में समय लगेगा
प्रेमी का ईश्वर हो जाना
स्त्री को उपेक्षित कर देता है
अनुजीत इकबाल
चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया के प्रेम को समर्पित रचना को स्थान देने के लिए साहित्य अर्पण को साधुवाद
खूबसूरत सृजन.. बधाई.. बेहद भावपूर्ण
धन्यवाद गौतम जी
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना सच कहूं कई बार पढ़ी और जितनी बार पढ़ी मन जीत लिया रचना ने ❣️
अहोभाग्य। अब देखिए