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प्रथम ग्रासे मूषक पात: (अंतिम भाग-3) - Anil Makariya (Sahitya Arpan)

कहानीहास्य व्यंग्य

प्रथम ग्रासे मूषक पात: (अंतिम भाग-3)

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  • 24 Min Read

प्रथम ग्रासे मूषक पात:★ (अंतिम भाग-3)

एक बात बेहद हैरान कर देने वाली थी, इस प्राणी ने कभी भी मेरे कपड़े,कागजात या कोई वस्तु कुतरकर मुझे नुकसान पहुंचाने की कोशिश नही की थी ।
तब भी नही जब वह पूरा दिन भूखा था। यह ऐसी बात थी जो उसे बुद्धि और प्रचंड जिजीविषा का धनी बनाती थी ।
लेकिन फिलहाल उसके इन गुणधर्मों को जानने के बावजूद भी मैं उसे जिंदा या आजाद छोड़ने के मूड में कतई नही था ।
मैं उसे घुसपैठिया और मेरे जमा किये हुए धन का कातिल मानता था ।
अब मैं ऐसी योजना के बारे में सोचने लगा जो इस नामुराद चूहे को यमलोक भी पहुंचा दे और इसके किये से मेरे लिए आत्मघाती भी सिध्द न हो ।
काफी सोचने के बाद मुझे यह महसूस होने लगा कि शायद इतनी फुलप्रूफ योजना का इस फानी दुनिया में कोई वजूद ही नही है।
फिर भी मैंने एक योजना पर काम करना शुरू कर दिया ।
उस योजना को चुनने का सबसे बड़ा कारण मेरे लिए यह था कि मेरी ठनठन गोपाल परिस्थिति पर यह योजना कोई अलग से बोझ नही डालने वाली थी और मेरी सुरक्षा के लिहाज से कुछ हद तक सुरक्षित थी क्योंकि इस योजना में मूषक अपनी ओर से पूरा जोर लगाकर भी मुझे हताहत नही कर पाता ।
मैंने उस योजना के क्रियान्वयन के लिए आज की रात ही चुनी क्योंकि कल सुबह मुझे स्थायी नौकरी हेतु फाइनल इंटरव्यू के लिए जाना था और मैं दो खुशख़बरियाँ एक साथ चाहता था ।
मेरे इस 'दिल मांगे मोर' वाले एटीट्यूड ने मेरे अंदर एक आत्मविश्वास का संचार किया जिसे अब तक इस चूहे ने कुतर रखा था।
मूषक के छोटे से बिल के दोनों ओर मैंने दो बिजली की वायर के नंगे सिरे चिपका दिए और उन तारों के दूसरे सिरे मैंने इलेक्ट्रिक सॉकेट में डालकर उनमें करंट प्रवाहित कर दिया ।
अब खुद होकर तो चूहा बिजली की वायर उठाकर मुझे चिपकाने से रहा और खुदा न खास्ता ऐसी कोई कोशिश की भी तो पहले उसके ही चिपकने के अवसर ज्यादा थे।
कुछ अच्छे पल याद करता मैं जल्द ही नींद के हवाले हो गया ।
सुबह उठा तो सीधी नजर उस चूहे की ओर उठ गई जो बिल से अंदर बाहर बेफिक्री से मॉर्निंग वॉक कर रहा था और नंगे तार उसके बित्तेभर शरीर को झटका देने की जगह केवल सहला रहे थे ।
शायद बिजली चली गई थी साथ ही मेरी सुबह की पहली खुशखबरी भी अपने साथ ले गई थी ।
मैंने घड़ी की ओर नजर घुमाई और चूहे को दिमाग से बाहर कर साक्षात्कार की तैयारी में जुट गया ।
साक्षात्कार उम्मीद से बेहतर गया, अब मुझे शाम का इंतजार था जब मेरी स्थायी नौकरी का रिजल्ट लगने वाला था ।
पैसे बचाने की कवायद के चलते मैं पैदल ही अपने कमरे की ओर चल दिया था। मेरी चाल में एक मस्ती थी ,एक आत्मविश्वास था। आज मैं अपने उस रूममेट के लिए जारी की हुई मौत की सजा पर भी पुनः विचार करने के मूड में था ।
अपने मुहल्ले की गली तक पँहुचते ही मुझे किसी अनिष्ट की आशंका सताने लगी।
कुछ तो ऐसा था जो मुझे आज इस गली में विचित्र लग रहा था ।
अचानक एक शरीर भागता हुआ आया और मुझसे टकरा गया ।
जरा-सा खुद को संभालकर चहेरे की ओर देखा तो मेरे मकान मालिक शंभु दयाल त्रिपाठी जी का अक्स नमूदार हुआ ।
मैं कुछ बोलूं उससे पहले वह चीख पड़े ।
"अरे ..भाग जल्दी रूम में आग लग गई है"
यह सुनते ही अपने आप मेरे पैर रूम की ओर दौड़ पड़े ही थे की फिर एक आवाज शम्भू दयाल जी की आई ।
"पानी मत डालना ...आग शार्ट सर्किट से लगी है।"
मेरी आंखों के सामने अपनी ही की हुई करतूत की फ़िल्म घूम गई ।
धूं-धूं करके जलता मेरा आशियाना उस गलीच जानवर की कुर्बानी के साथ ही अपने चहेरे पर कालिख मलता प्रतीत हो रहा था ।
शम्भू दयाल त्रिपाठी जी ....न न अब काहे के 'जी' ।
शम्भू ने मेरे कमरे का डिपॉजिट उर्फ पगड़ी की रकम जप्त कर ली और जिसमें रहने के लिए केवल दीवारें और छत बची थी उस रूम की चाबी भी मुझसे छीन ली वैसे भी वह चाबी अब किसी काम की नही रह गई थी क्योंकि ताला लगा पूरा दरवाजा ही आग में स्वाह हो चुका था।
एक अदने से जीव ने मेरा सारा जीवनोपयोगी समान और बसेरा एक झटके में स्वाह कर दिया और मुझे एक जोड़ी पहने हुए कपड़ों के साथ सड़क पर उतार दिया । मुझे अपना एक-एक कदम मन भर भारी लग रहा था ।
आज अपने घोंसलों की ओर लौटते हुए पंछियों का कलरव मुझे विलाप की तरह लग रहा था आखिरकार अब मेरे पास भी वापस अपने गाँव लौटने के सिवाय कोई चारा नही बचा था ।
लेकिन मेरे पास तो गांव लौटने के लिए गाड़ी किराया भी बाकी न बचा था और मुहल्ले में अगर मैं फिर कर्जा मांगने जाता तो पिछले कर्जे की अदायगी के तौर पर मुहल्ले वाले मेरे यह आखिरी जोड़ी कपड़े भी उतरवा लेते ।
अभी शाम को एक रेलगाड़ी मेरे गांव की ओर जाती है ।
क्या कहा मैंने ? शाम!
मेरे दिए साक्षात्कार का रिजल्ट भी तो अभी ही है । मैं बिना कुछ और सोचे लगभग दौड़ पड़ा संबंधित सरकारी महकमे की ओर ।
कहते हैं कि कुकनूस पक्षी गाना गाता है और अपने ही गायन की ज्वालाओं से जलकर राख हो जाता है फिर अपनी ही राख से खुद को पुनर्जीवित करता है।
आज कुकनूस पक्षी मैं साबित हुआ था, जिसने पहले खुद को राख किया और अब एक स्थायी नौकरी और रहने के लिए सरकारी क्वार्टर का आदेशपत्र लेकर सीना तानकर अपना क्वार्टर देखने जा रहा था ।
खूबसूरत तो नही कह सकते लेकिन दड़बेनुमा उस शहीद कमरे से काफी बेहतर था सरकारी क्वार्टर, जिसमें अलमारी और बिस्तर की व्यवस्था पहले से की हुई थी ।
छत पर लगा हुआ था पंखा और उसके ऐन नीचे लगा हुआ था गद्दा बिछा हुआ लकड़ी का पलंग और पलंग के नीचे हंसता-खेलता एक ....चूहा! ।
"चु.....हा ? मुझे...मुझे नफरत है इस चूहे से ...मैं जिंदा नही छोडूंगा इसे...मैं जिंदा नही छोडूंगा।"
मेरी यह चीख मुझपर अट्टहास लगाते हुए वातावरण में गुम हो गई ।
-ईति

(मौलिक एवं स्वरचित)
#Anil_Makariya
Jalgaon (maharashtra)

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Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

बहुत खूब भाई,तीनों भाग

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 4 years ago

तीनों भाग कमाल के हैं

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 4 years ago

तीनों भाग पढ़े जबरस्त लिखते हो।

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 4 years ago

bahot Sunder aur Dilchasp.. !!

दादी की परी
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