कविताअतुकांत कविता
पाप और पुण्य से परे
हे महायोगी
जैसे बारिश की बूंदें
बादलों का वस्त्र चीरकर
पृथ्वी का स्पर्श करती हैं
वैसे ही, मैं निर्वसन होकर
अपना कलंकित अंतःकरण
तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूं
तुम्हारा तीव्र प्रेम, हर लेता है
मेरा हर चीर और आवरण
अंततः बना देता है मुझे
“दिगंबर”
थमा देना चाहती हूं अपनी
जवाकुसुम से अलंकृत कलाई
तुम्हारे कठोर हाथों में
और दिखाना चाहती हूं तुमको
हिमालय के उच्च शिखरों पर
प्रणयाकुल चातक का “रुदन”
मैं विरहिणी
एक दुष्कर लक्ष्य साधने को
प्रकटी हूं इन शैलखण्डों पर
और प्रेम में करना चाहती हूं
“प्रचंडतम पाप”
बन कर “धूमावती”
करूंगी तुम्हारे “समाधिस्थ स्वरूप” पर
तीक्ष्ण प्रहार
और होगी मेरी क्षुधा शांत
हे महायोगी, पाप और पुण्य से दूर
मेरा उन्मुक्त प्रेम
नशे में चूर रहता है
अनुजीत इकबाल
धूमावती- दस महाविद्याओं में पार्वती का एक रूप, जिसने भूख लगने पर महादेव का भक्षण किया था।