कविताअतुकांत कविता
#27अगस्त२०२०
दिन-गुरूवार
चित्र आधारित
विधा-पद्य
साज़िशें बहुत करीं उसने मुझे ढाने की
मैं सम्भलता रहा और वो हर कोशिश
करता रहा मुझे गिराने की.....
काश! करे वह भी कोशिश
क़दम से क़दम मिलाने की....
एक ही नावं के सवार हैं हम
क्यों समझता वह ये नहीं?
करता है पीठ पीछे वार
मेरा वजूद मिटाकर भला
होगा क्या उसे हासिल?
जो होता जिंदादिल तो यूँ
पीछे से वार न करता!
होता मुक़ाबिल या
दो क़दम आगे ही बढ़ता!
बुज़दिली न होती तो,
नज़र से नज़र मिलाकर
ज़रा बात ही करता!
नेक नहीं उसके इरादे
स्वार्थों ने उसे इस क़दर घेरा
बढ़ते देख मुझे आगे
हर पल है वो सुलगता!
जिस दीवार के सहारे
टिके हैं ये वजूद हमारे
उसकी एक भूल से
वह डगमगा जाएगी!
मिटाकर हस्ती मेरी
क्या अपनी शख़्सियत
उसे फिर मिल जाएगी?
फिर मिल जाएगी?....
मौलिक/स्वरचित
डॉ यास्मीन अली।