लेखआलेख
मानव स्वभाव बड़ा ही निराला है। सच हम अपने अपने दुख से इतने संतप्त नहीं होते वरन औरों का सुख हमें दुखी कर देता है। अपने बच्चे के सत्तर प्रतिशत नम्बर हमें खुश नहीं कर पाते।किन्तु पड़ोसी के बच्चे के अस्सी प्रतिशत नम्बर हमारी खुशियां काफ़ूर कर देते हैं। मेरा रहन सहन का स्तर उससे बड़ा क्यों नहीं ? मेरी मारुती उसकी ऑडी से कमतर है। इसी उधेड़बुन में हम अपनी वर्तमान में प्राप्त उपलब्धियों
को नकार देते हैं। प्रतिस्पर्धा के इस युग में हम "न मैं खाउंगा न किसी को खाने दूंगा"वाली मानसिकता से ग्रसित हैं। बेहतर तो यही हो कि हम हाथ में हाथ ले साथ-
साथ आगे बढे।
बचपन की एक कहानी इस संदर्भ में मुझे याद आ रही है।
दो बकरियां एक संकरी सी पुलिया पर आमने सामने आकर बीच में फस गईं। अपनी जानें बचाने के लिए यदि वे गुत्थम गुत्था होती तो दोनों ही गहरे दरिया में अपनी जानें गवां देती।किन्तु समझदारी से काम ले एक बकरी बैठ कर दूसरी को अपने ऊपर से निकाल देती है।
किन्तु स्वार्थी मानव ख़ुद को बचाने के जुनून में दूसरों के साथ स्वयं का भी नुक्सान कर बैठता है।कहते हैं ना हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे।
याद रखिए यह ज़िन्दगी फूलों की सेज नहीं कंटकों भरी राह है। संसार में सहकार और समझौते के दम पर ही जीवन चलता है।
सरला मेहता
आपने बहुत खूबसूरती से हर बात कही। पर समझौते पर जो रिश्ता चलाया जाए वह रिश्ता नही होता