लेखनिबन्ध
शीर्ष स्थान पर मस्तिष्क को धारण करने वाला एकमात्र प्राणी मानव ही तो है पर यह इतना स्वार्थी, लालची और संकुचित मानसिकता वाला क्यों हो चला है...? अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ भी कर बैठने से परहेज़ ही नहीं। दो भाई हों या दो पड़ोसी... दो धर्म हों या दो मुल्क़...। कोई भी यह बात समझने को तैयार ही नहीं कि हम सबका एक ही मंतव्य है, एक सी आवश्यकता है। एक ढांचा, एक सा खून है। अपने अपने प्रारब्ध की पूर्ति के लिए हम सब इस दुनिया में आए हैं। हमेशा एक दूसरे की टांग खींचने या उसे धकेलने का प्रयास उचित नहीं है। कहीं दूसरे को गिराने के प्रयास में खुद ही ना डगमगा जाएं। हमें यह समझना होगा कि हम सब की एक ही स्थिति है, ज़रा सा पैर फिसला नहीं कि धड़ाम....। बारूद के ढेर पर खड़ी इस दुनिया में एक दूसरे को धकेलने के बजाय गिरते को संभालना ज्यादा ज़रूरी है। तभी अस्तित्व की कल्पना सार्थक होगी।
समझेगा कौन हर बार प्रश्न यही आ जाता है।
जी, आप जैसे चंद लोगों को देखकर कभी-कभी आशा भी जगती है
सुन्दर
आभार आपका
आभार आपका