कविताअतुकांत कविता
रात की बात
हमने पूछा रात से, नाईट हुई या नहीं अभी।
रात कहती चौंक कर हमने अभी देखा नहीं।
वैसे जरा तुम ये कहो ये नाईट है भला क्या बला?
कैसी ये दिखती है? कैसा रंग रूप है इसका पला?
हमने पूछा तुम कैसी रात हो?
कैसे तुम्हें ये नहीं पता?
तुमसे ही तो है अंधेरा,
तुमको ही तो रात कहा।
रात बोली ये कब हुआ?
हमको तो तनिक पता ना चला?
ये दुनियां भी कहती है क्या?
क्या क्या जाने मेरा नाम रखा?
हैरान होकर फिर से बोली
मानो खुद से ही किया हो मशवरा।
अरे तुम ये क्या कहती हो?
हमसे भला कहाँ है अंधेरा?
चांद और तारों को छोडो,
धरती पर भी है उजियारा।
हम तो यूँ ही बदनाम हुए,
खाया माल तो काल ने सारा।।
अँधियारा तो फैलाया है,
छल, कपट, पाखंड, दम्भ ने।
कालिख पोती है मुँह पर,
तुम्हारे ही क्रोध, अहम और घमंड ने।
नाम हमारा लेकर के
काले काम किए तुमने।
वरना हम तो आए धरा पे,
सुनहरे सपनों से तुम्हें मिलाने।
चांद तारे तुम्हें दिखा कर,
निराशा में एक नई आस जगाने।।
— राधा श्री शर्मा
waah raat ki ye pribhasha bhi hai.. bahut acha laga padhkar. badhiya rachna 👌🏻
बहुत आभार आपका 🙏 🌹 🙏