कविताअतुकांत कविता
मृत्यु की छाया विदित होती है उन प्रतिबंधित मार्ग से गुजरती हुई
जिन पर हजारों कांटे शरीर को छलनी कर बेध कर निकल जाते हैं।
उस क्षण का मौन पसर जाता है आंखों पर
फैल जाती है सूर्य की कठोर तपन हृदय के किनारों पर,
अग्नि सी प्रचंड तपस्या में लीन देह पर पड़े चिन्ह
बता देते हैं कि जीवन कुछ नही है
बस एक धुंआ है जो हवा में मिश्रण बनाकर पानी सा बह जाता है।
और छोड़ जाता है उसी वेग से डर जिससे उभरना मनुष्य के बस की बात नही।
जिस क्षण वह काबू पा लेता है उस डर पर
मृत्यु की छाया उसकी मुट्ठी में कैद उसे मिला देती है
उस छोर से जिससे उसका नाता जन्म से पहले का है। - नेहा शर्मा