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परछाईं - Ankita Bhargava (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

परछाईं

  • 365
  • 40 Min Read

परछाई

आयुष काफ़ी लम्बे टूर से घर लौटा था| इस बार वह लगभग एक महीना घर से बाहर रहा| घर पर इस वक्त कोई नहीं था| निहारिका ऑफिस गयी थी और बच्चे स्कूल| आयुष जानता था उसे अगले तीन चार घंटे अकेले ही रहना है| वह आराम से सोफ़े पर पसर गया| काम ज्यादा होने की वजह से पिछले कई दिनों से ठीक से सो नहीं पाया था, आज उसका पूरे रेस्ट का इरादा था| बस आंख लगने ही जा रही थी कि उसकी नज़र कोने में मेज पर पड़े पीले लिफ़ाफे पर अटक गयी| कुछ काम का तो नहीं सोच कर वहीँ से हाथ बढ़ा कर उठा लिया|
“अरे मम्मा का लेटर|" आयुष को याद आया मम्मा की तबियत ख़राब है| जब वह टूर पर था तभी मामाजी का फ़ोन आया था| वह टूर बीच में छोड़ कर तो नहीं आ सकता था पर उसने मामाजी से मम्मा का ध्यान रखने के लिए कहा था और साथ ही कुछ पैसे भी उनके अकाउंट में डाल दिए थे| आयुष के बॉस ने भी काम के प्रति उसकी ईमानदारी की भूरी-भूरी प्रशंसा की थी|‘आयुष बेटा, इस बार तो प्रमोशन पक्का है| खुशखबरी के साथ मम्मा से मिलने जाऊँगा|’लिफ़ाफ़ा खोलते हुए आयुष सोच रहा था|

मेरे प्यारे बच्चे आयुष
शुभाशीष

तुम सोच रहे होगे आज मम्मा को क्या हो गया जो चिट्ठी लिखने बैठ गयी| सही है इस इन्टरनेट के ज़माने में चिट्ठी कौन लिखता है भला| पर मैं लिख रही हूँ, क्योंकि मैं तुमसे आज जी भर बातें करना चाहती हूँ|
तुम जानते हो आयुष तुम मुझे जिंदगी से मिला सबसे खूबसूरत तोहफा हो, जिसके लिए मैं ईश्वर का सदैव धन्यवाद देती हूँ| जिस दिन पहली बार मैंने अपने भीतर तुम्हारी आहट महसूस की थी, वह दिन मेरे लिए सबसे ख़ुशी का दिन था| मैं बहुत डर गयी थी जब तुम्हारी दादी ने मेरी नज़र उतारते हुए कहा था,‘पोता ही लाना|’कुछ पल को मुझे लगा अगर लड़की हुई तो तुम्हें मुझसे छीन ही ना लिया जाये| माँ के लिए संतान चाहे लड़का हो या लड़की बस संतान होती है, एक माँ के लिए संतान को खो देने से बड़ी कोई सज़ा नहीं होती|
‘मांजी अगर पोती हुई तो|’ आखिर मैंने डरते डरते तुम्हारी दादी से पूछ ही लिया|
‘अगर पोती हुई तो घर में लक्ष्मी आएगी, पर अगर पोता हुआ तो तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा|’मांजी की बात सुन के मुझे तसल्ली हुई|
अब मैं बेसब्री से तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रही थी| अपने स्वास्थ्य से जुड़ी सभी समस्याओं के बावजूद तुम्हारे लिए छोटे छोटे मोज़े-टोपी बुन रही थी| और साथ में बुन रही थी तुम्हारे और मेरे भविष्य के कुछ सुनहरे सपने| जानते हो आयुष मैं तब भी तुमसे बातें किया करती थी|
आखिर वह दिन भी आ गया जब तुम मेरे भीतर से निकल कर मेरी गोद में आ गए| बहुत दर्द हुआ था उस दिन, पर तुम्हें गोद में लेते ही मैं अपना हर दर्द भूल गयी सच|
‘क्या मम्मा आप भी क्या ले बैठे|’ यही कहना चाहते हो ना| आज मुझे कह लेने दो, प्लीज़, फिर मौका मिले ना मिले|
बहुत प्यारे थे तुम जब छोटे थे| बस रंग थोड़ा दबा हुआ था तो क्या कान्हाजी भी तो सांवले ही थे ना| वो लोरी याद है तुम्हें जो मैं बचपन में तुम्हें सुनाती थी, वही! जिसे सुन कर तुम मेरे आँचल में छुप कर सुकून से सो जाया करते थे| ओह कैसी पागल हूँ मैं, तुम्हें कैसे याद होगी, कितने छोटे थे तुम| अब तो मुझे भी याद नहीं| किसके लिए याद रखती, तुम्हारे बाद कोई छुटका या छुटकी आया ही नहीं| हाँ! तुम्हारे बच्चे जरुर हुए, पर अमेरिका में यह सब कहाँ चलता है|
उन दिनों मेरी सारी दिनचर्या तुम्हारे सोने जागने के अनुसार तय हो गयी थी| दिन में तो मुझे बहुत कम समय मिलता था तुम्हारे साथ खेलने के लिए क्योंकि उस समय दादाजी-दादी और बुआ तुम्हारे साथ खेलते थे और सारी शाम तुम अपने पापा की गोद में होते थे| पर रात को जब सब सो जाते थे तब हम माँ बेटे मिल कर खूब मस्ती करते थे| और जब तुम्हारी आवाज़ से पापा की नींद में खलल पड़ता तो वो कह उठते,‘अरे प्रेरणा अब सुला दो इसे| इसकी गुटर गूं मुझे भी सोने नहीं दे रही| सुबह ऑफिस भी जाना है|' फिर पापा की डांट खा कर मजबूर हो कर हमें सोना पड़ता|
तुम मेरी दुनिया हो आयुष| भले ही तुम मेरी आँखों के सामने रहो या फिर दूर, मेरा जीवन तुम्हारे ही चारों ओर घूमता है, जैसे धरती सूरज के चारों ओर घूमती है| बहुत खूबसूरत यादें हैं मेरे पास तुम्हारे बचपन की, सिर्फ़ यादें नहीं हैं ये, मेरे जीवन की अनमोल निधि हैं, आज तुम्हारे साथ सब बंटाना चाहती हूँ| हाँ! आज मैं नोस्टालजिक होना चाहती हूँ|
जब तुम अपनी छोटी-छोटी बाहें फैला कर मुझे बुलाते थे तो मेरे कदम ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारी ओर चलने लगते थे| वो तुम्हारा डगमगाते हुए उठा पहला कदम, दादाजी-दादी पापा और बुआ सभी तो खड़े तुम्हें घेर कर| सभी चाहते थे कि तुम्हारा कदम उन्हीं की ओर उठे, पर जब तुम मेरी ओर मुड़े तो सब निराश हो गए और मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही ना रहा| मैं तुम्हें अपनी गोद में लिए जाने कितनी देर तक चूमती रही|
जब तक तुम्हारे अपनों का दायरा छोटा रहा, उसमें मैं सबसे ऊपर रही पर जैसे-जैसे तुम बड़े हुए तुम्हारी दुनिया में और लोग शामिल होते गए और धीरे-धीरे मैं पीछे छूटती गयी| सबसे पहले मैंने ही तुमसे हाथ छुड़ाया था जब तुम्हें स्कूल भेजा था| बहुत रोये थे तुम पर मैंने फिर भी दिल पर पत्थर रख कर तुम्हें टीचर के हवाले कर दिया था| भले ही उस दिन तुम्हें यह मेरी क्रूरता लगी हो पर वह कदम उठाना तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य के लिए जरुरी था| धीरे धीरे तो तुम खुद ही अपने कैरिअर को लेकर इतने सजग हो गए कि तुम्हें कुछ समझाने की जरूरत ही नहीं रही|
पहले स्कूल, फिर कॉलेज और फिर नौकरी, जाने कितने ही मौके आये जब हमें तुम्हारे कारण खुद पर और तुम पर गर्व हुआ| चाहे पढ़ाई हो या खेलकूद हर क्षेत्र में तुम हमेशा अव्वल रहे| तुम्हारे जीते पुरस्कारों से घर भरा रहा हमेशा| इंजीनियरिंग का कोर्स खत्म होने के साथ ही जब कैम्पस प्लेसमेंट में तुम्हारा सलेक्शन हुआ तो तुम्हारे पापा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था| पर पहली बार तुम्हारी इस उपलब्धि पर मैं खुश नहीं थी|
हाँ सच! मैं खुश नहीं थी क्योंकि कंपनी तुम्हें अमेरिका भेज रही थी| तुम्हें और तुम्हारे पापा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, पर मुझे मेरा बेटा छिनता सा नज़र आ रहा था| मैं सोच रही थी क्या कंपनी तुम्हें भारत में नौकरी नहीं दे सकती थी या फिर तुम ही किसी और कंपनी में नौकरी नहीं ढूंढ सकते थे, पर मेरी सोच और मेरी इच्छाओं का कोई मोल नहीं था, तुम्हें जाना था और तुम चले गए|
जिस दिन तुम्हें अमेरिका जाना था मेरा दिल रो रहा था, पर तुम्हारा मन रखने के लिए मैं अपने होठों पर मुस्कान चिपकाए रही| इधर तुम चेक-इन करने एअरपोर्ट के भीतर जा रहे थे और उधर मेरा मन कर रहा था मैं दौड़ कर तुम्हें रोक लूं| पर मैं ऐसा ना कर सकी| तुम तो चले गए पर मैं उस दिन से लेकर आज तक भाग ही रही हूँ, कभी तुम्हारी यादों के पीछे, और कभी तुम्हारी परछाई के पीछे|
बचपन में अक्सर तुम मेरे साथ एक खेल खेला करते थे, धूप में भागते और मुझसे कहते,‘मम्मा! मेरी परछाई को पकड़ कर दिखाओ|' मैं तुम्हारे पीछे भागती, यह जानते हुए भी कि परछाई को भी कोई पकड़ सकता है भला| मुझे नाकाम होते देख तुम खिलखिला कर हंसते और तुम्हारी उस हंसी पर मैं निहाल हो जाती| आज मैं भी तुम्हारे साथ वही खेल खेलना चाहती हूँ| चाहती हूँ, मैं आगे आगे भागूं, और तुम मुझे पकड़ो| पर जानती हूँ तुम ऐसा कभी नहीं करोगे, बड़े हो गए हो ना, यह बेवकूफी नहीं करोगे| कौन जाने आयुष तुम अब कभी मेरे पास वापस आना भी चाहोगे या नहीं और अगर कभी आये भी तो मेरी परछाई पा भी सकोगे या नहीं|
अच्छा अब लिखना बंद करती हूँ| तुम भी बोर हो गए होगे और मैं भी थक गयी हूँ| अब सोना चाहती हूँ, काश आज ऐसी गहरी नींद आये कि फिर मैं किसी के उठाने से ना भी उठूं| अपने अकेलेपन से जूझते जूझते थक गयी हूँ बेटा| जब तक तुम्हारे पापा थे फिर भी मेरे पास जीने का एक कारण था, अब तो वो भी चले गए किसके लिए जीऊँ| इस सूने घर की दीवारें मेरी बातें सुन सुन कर पक चुकी हैं| लोग पागल कहने लगे हैं मुझे, कि यह खुद से ही बातें करती है| अच्छा अब बस यह पत्र मुझे वॉचमैन को भी देना है, पोस्ट करने के लिए|
मम्मा का खत पढ़ कर आयुष की आँखें भर आयीं| कितना दर्द था हर शब्द में, कितना अकेलापन| ‘नहीं! अब और नहीं! मैं मम्मा को और अकेला नहीं छोड़ सकता, आज ही निहारिका से बात करता हूँ और भारत जाने का प्रोग्राम बनता हूँ|’
आयुष निहारिका के ऑफिस से आने का इंतज़ार कर रहा था कि डोर बेल बजी| आयुष ने दरवाज़ा खोला, दरवाजे पर निहारिका खड़ी थी बदहवास, घबराई सी|“निहारिका क्या बात है, इतना परेशान क्यों हो?”
“आयुष... माँ... मामाजी का फोन...” आयुष को फोन पकड़ा कर निहारिका बस इतना ही कह पायी| उसके मुंह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे, उसकी हालत देख कर आयुष भी घबरा गया| उससे जल्दी से फोन लेकर मामाजी से बात करने लगा| “हेलो आयुष!” दूसरी ओर से मामाजी का गम्भीर स्वर सुनाई दिया और फिर उन्होंने जो कुछ कहा वह आयुष के कानों में जहर की तरह उतर गया| “आयुष! दीदी हमें छोड़ कर चली गई| कल उनकी तबियत ज्यादा ख़राब हो गयी थी| हम उन्हें हॉस्पिटल लेकर आये, डॉक्टर्स ने बहुत कोशिश की पर वे दीदी को नहीं बचा पाए| तुम कब तक आ सकते हो बताओ| उसी हिसाब से आगे की कार्रवाही रखते हैं| आयुष तुम सुन रहे हो ना|”
उधर फ़ोन पर मामाजी चिल्ला रहे थे इधर, निहारिका आयुष को झकझोर रही थी, पर उस तक किसी की आवाज़ नहीं पहुँच रही थी, ना निहारिका की, ना मामाजी की| बस कुछ देर पहले पढ़े मम्मा के शब्द उसके दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहे थे, ‘जाने तुम कभी मेरी परछाई पा भी सकोगे या नहीं.......|’

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

अभी दुबारा पढा..! आंखें अनायास नम हो गयीं. अपनी दिवंगत मां की याद आ गयी..! बहुत अच्छा लिखा है 🙏

Amrita Pandey2 years ago

मैंने आज दोबारा पढ़ा, मुझे अंकिता याद आ गयी। 😭

Ashish Dalal

Ashish Dalal 3 years ago

jindagi ka kadva sach hai. bahut acchi kahani Ankita Ji. Congratulations.

Ankita Bhargava3 years ago

आभार सर

Amrita Pandey

Amrita Pandey 3 years ago

बहुत अच्छी कहानी अंकिता जी

Ankita Bhargava3 years ago

जी शुक्रिया

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

बहुत मार्मिक और ह्रदयस्पर्शी..!!

Ankita Bhargava3 years ago

आभार सर

दादी की परी
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