कवितालयबद्ध कविता
कहाँ याद कर पाते हैं
उन भूले बिसरे दिनों को
शैतानियों से भरी अटखेलियों को
मां के दुलार को
सुबह के आलस को
बैठे बैठे, जहां दिन गुज़ारते थे
उस आंगन को
भाई बहनों के संग हंसते खेलते
और फिर लड़ जाने को
दूसरे के खिलौनों पर अड़ जाने को
पिता से डर डर के
अपनी ख्वाहिश बताने को
कहां याद कर पाते हैं
वो तो दूर जा चूकी है
धीरे धीरे भुला दी गई हैं
क्योंकि बदलते दौर के
बदलते मौसम में
बदलती इस दुनिया में
नई नई चिंताओं में
चुप रहने की आदतों में
भागम भाग सी ज़िन्दगी में
लम्बी लम्बी छलांगों में
कहीं पीछे छोड़ चुके है
अपने अच्छे बुरे एहसासों को
पर वे यादें अभी भी वहीं ठहरी हैं
बीते हुए लम्हों में
बस फर्क इतना है
कि जिन यादों को छूकर
जहां से गुज़रा करते थे
अब उस राह पर चलना भूल गए हैं
इसलिये उन यादों को
अब कहाँ याद कर पाते हैं।
सच है!बचपन की यादें कभी भुलाए नहीं जाती।
बिल्कुल, शुक्रिया