कहानीलघुकथा
उजाला
मैं और विपिन अपने कैबिन में बैठे मैगजीन के लिए कवर पेज सलेक्ट कर रहे थे। माह का अंत आ गया था और मैगजीन रिलीज़ करने की तारीख भी पास ही थी। बाकी पूरी सामग्री तैयार थी बस कवर पेज नहीं। क्योंकि विपिन को कुछ भी पसंद नहीं आ रहा था। कभी-कभी मुझे इस मिस्टर परफेक्शनिस्ट की आदतों पर खीज भी होती थी पर क्या करें मेरे पास उससे बेहतर विकल्प भी तो नहीं था। मैं लेपटॉप की स्क्रीन पर आंखें गड़ाए बैठा था और विपिन कॉफ़ी का मग लिए खिड़की के पास खड़ा था।
"मनोज! इधर आओ।"
"क्या है?" मैंने चिढ़ते हुए पूछा।
"अरे यार इधर आ जल्दी।" उसने फिर से कहा तो मैं उसके पास चला गया और सवालिया निगाहें उस पर टिका दीं।
"देख!" जवाब में उसने बाहर की ओर इशारा कर दिया।
"क्या देखूं? साथ वाली बिल्डिंग में रिनोवेशन चल रही है वो देखूं?" मैंने चिढ़ कर पूछा।
"नहीं! उस रंग करने वाले को ध्यान से देख।"
"इसमें क्या खास है?"
"उसे देख कर ऐसा लग रहा है जैसे… जैसे वह ढलते सूरज का तेज ब्रश में भर कर अपनी बाल्टी में समेट रहा हो।" विपिन ने अपना कैमरा उठाते हुए कहा। मैं समझ गया उसे मैगजीन का कवर पेज मिल चुका था।
"और इस तेज का क्या करेगा?" अब मुझे उसकी बातों में दिलचस्पी होने लगी थी।
"शाम को अपने घर में उजाला करेगा।" विपिन हंस दिया।