कवितानज़्म
मेरे अंदर में कैद हूं
जिसका चेहरा बिल्कुल अलग है।
वो बेड़ियों से बंधा है
अंधेरे में, सन्नाटे में पड़ा है
बदन उसका,
सुकून के लिए तड़प उठा है।
आंखों में उसके दरारें हैं
चेहरे पर सूखा पड़ा है।
उसकी आवाज़ बेजान होती जा रही है
मगर उसकी चीखें बार-बार उठती हैं
जब भी दर्द उसे छू जाता है।
जान नहीं है, लेकिन दर्द जान दे देता है
वो और कुछ कहे ना कहे
लेकिन अपना अहज़ान कह देता है।
वो बोलने को है,
सामने आकर कुछ कहने को है
इतना बेसब्र हुआ है कि
शैतान बन बैठा है।
उसकी खलबलाहट से
बेड़ियों की खनक
उसकी चीखों से बंध गई हैं।
जिदोजहद ऐसी है
कि बेड़ियां उसे छोड़ती नहीं
और वह बेड़ियों से रिहा होना चाहता है।
मेरे अंदर मैं केद हूं
जो सामने आकर
क्या कुछ नही कहना चाहता है।
अपने दर्द को रुलाना चाहता है
ज़िस्म से बंधी कड़ियों को दिखाना चाहता है
किसी ने आकर छुआ नही,
तो अपनी तन्हाई को बताना चाहता है।
लेकिन वह हारकर
उन बेड़ियों से जूझकर
खुद में टूटा हुआ
हालातों से उखड़ा हुआ
अब एक अल्हड़ है
जिसका चेहरा बिलकुल अलग है।