कवितालयबद्ध कविता
अधकचरे से ये रिश्ते,
कुछ अधमरे से ये रिश्ते
अधकचरे, अधमरे से ये रिश्ते
हाँ अधकचरे, अधमरे ही तो
होते जा रहे हैं रिश्ते,
हम सब चुका रहे, जिसकी,
एक साथ ना जाने कितनी,
अब सब की सब,
अनचुकी सारी किश्तें,
अधकचरे, अधमरे से ये रिश्ते
क्या कहेंगे इनको ?
क्या कहेंगे इनको ?
ये वृद्धजन घुटते जा रहे हैं
वृद्धशाला में,
ये गायें घर-आँगन से निकलकर
मुरझायी सी जी रही गोशाला में
या फिर खाती पाॅलीथीन,
और किसी का भविष्य
घिरा वधशाला में
यौवन डूबा रंगशाला, मधुशाला में,
और क्या है, अगर नहीं द्यूतालय ये ?
सैंकडो़ं, सहस्त्रों, लाखों और करोडो़ं की
भागीदारी सिमट रही है, धनबल के हाथ में
हाँ, विकास ढल रहा आज, सिर्फ पूंजीवाद में
और कंचन, कंचनमृग बनकर भटका रहा,
मृगतृष्णा बन, सम्मोहन दलदल में अटका रहा
हर एक जीवन- मूल्य को शून्य में लटका रहा
हाँ, यही तो हैं वही आवास कलि के,
जिन्हें परीक्षित से उसने था माँग लिया,
हाँ, हमने अपने मूल्यों, संबंधों को
लिप्सा की सूली पर जिंदा टाँग दिया
हाँ, इस चक्की में हर रोज,
किसी ना किसी रूप में पिसते,
ये अधकचरे, अधमरे से रिश्ते
और क्या कहेंगे इसको ?
और क्या कहेंगे इसको ?
माँ का बेटों से रिश्ता,
खुदा से भी पाक,
एक रूहानी रिश्ता
माँ पिलाती दूध जलाकर
अपना रक्त भी
मगर दूध चुक जाने पर भी
हम तो पीते जा रहे हैं रक्त भी
और समझते हैं खुद को
हम सब मातृभक्त ही
हाँ, ये कुदरत एक माँ ही तो है
जिसे हम सोने का अंडा देती
मुर्गी समझकर काट रहे हैं
इसकी ममता का प्रसाद
जागीर समझकर बंदर-बाँट रहे हैं
अतिदोहन, अतिशोषण का
यह जबरन चीरहरण
करके हम सब बेटे फिर से
बन रहे हैं दुःशासन
हाँ, दूषित हैं
ये गगन, पवन,
अनल, जल, भूतल,
यह भयंकर धूम्रकेतु,
यह प्रदूषित गंगाजल,
तार-तार सा होता यह
माँ का हरा-भरा आँचल,
और आहत सा होता यह
लुटा-पिटा घायल हिमाचल
यह संबंध है या फिर कोई
झूठा सा अनुबंध
जिसे हम सिर्फ तोड़ने के लिए ही
लिखते है
और बाहर से तो हम सभी
पाखंडी से, भक्त बने ही दिखते हैं
हाँ, बस ऐसे ही आज हमारे
अधकचरे, अधमरे से ये रिश्ते हैं
जो तांडव करने आ पहुँचे हैं
महारुद्र सम, भड़ककर
और बनकर मजबूर भूख
दिख रहे हैं, आज सड़क पर
क्योंकि हम
निभा नहीं पाये रिश्ते,
और सब के सब रिश्ते
होते जा रहे हैं, अब कुछ
अधकचरे, अधमरे रिश्ते
द्वारा : सुधीर अधीर