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बस्तर के आदिवासी खेल - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

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बस्तर के आदिवासी खेल

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बस्तर के आदिवासी खेल

मुर्गा लड़ाई बस्तर के आदिवासियों का खास शगल है। दिवानगी इतनी कि हर दांव में लाखों रुपए लगते हैं।बस्तर में मुर्गा लड़ाई का कोई खास अवसर नहीं होता, बल्कि गांवों में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों में मुर्गे लड़ाए जाते हैं।
दरअसल मुर्गा लड़ाई के शौकीनों की प्रतिष्ठा मुर्गे से जुड़ी होती है, लिहाजा मुर्गों को बड़े जतन से पाला जाता है।मुर्गे के मालिक अपने परिवार से कहीं ज्यादा मुर्गे का ख्याल रखते हैं।वे मुर्गे को जंगलों में मिलने वाली जड़ी- बूटियां खिलाते हैं, जिससे उसकी स्फूर्ति और वार करने की क्षमता बढ़ जाती है।
मुर्गे को हिंसक बनाने के लिए गौर (बायसन) का पित्त भी खिलाया जाता है।इसके अलावा मुर्गों को स्टेरॉयड, डेक्सामेथासोन, बीटा मैथासोन के इंजेक्शन और प्रेडनीसोल जैसी अवैद्य दवाएं भी दी जाती हैं।ये दवाएं आसानी से मिल जाती हैं। मुर्गों पर इन दवाओं का असर बेहद तेज़ी से होता है।इनका नशा इतना तेज़ होता है कि लड़ते वक्त गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी मुर्गा मैदान नहीं छोड़ता।

साप्ताहिक बाजार के दिन एक हिस्से में गोल घेरा बनाया जाता है।उसी गोल घेरे में मुर्गों की लड़ाई कराई जाती है। इस जगह को कुकड़ा गली कहते हैं।
इस खेल में सबसे ज्यादा असील प्रजाति के मुर्गों को लड़ाया जाता है जिसका वैज्ञानिक नाम है- गेलस डोमेस्टिकस।बस्तर के अलावा यह आंध्रप्रदेश के खम्मम, उत्तरी तेलंगाना जिले में पाया जाता है।इस मुर्गे की नजर तेज़ और टांगे लम्बी होती हैं जो लड़ाई में काफी सहायक होती हैं।
मुर्गा लड़ाई में 1 हजार से 50 हजार रुपए तक का दांव तो लड़ाने वाले ही लगाते हैं।इससे कई गुना ज्यादा रकम लड़ाई देखने वाले दर्शक लगाते हैं।आम दिनों में एक-एक दांव जहां 1- 2 लाख के होते हैं, वहीं त्योहारों में बोली बढ़कर 5 से 10 लाख भी चली जाती है।
रांची के आस पास के इलाके में होने वाले मुर्गा लड़ाई का दिन और स्थान तय हैं, अनीटोलाम में बुधवार, गुरुवार को कटहल मोड़, शनिवार को रातू बगीचा।
यहां इलाके के दूर-दूर के गांवों से लोग विशेष रूप से ट्रेन्ड किए गए मुर्गे लेकर पहुंचते हैं।लड़ाई शुरू होने से पहले मुर्गे के पैरों मेंअंग्रेजी के यू आकार का एक हथियार बांधा जाता है,इसे कत्थी कहते हैं।इसे हर कोई नहीं बांध सकता।इसे बांधने की भी एक कला है। जो बांधना जानते हैं उन्हें कातकीर कहा जाता है। एक कातकीर एक मुर्गे के पैर में कत्थी बांधने का तीन सौ रुपये लेता है और अगर वह मुर्गा जीत गया तो दो सौ रुपये ऊपर  से भी।कत्थी भी कई तरह की होती है।
बांकी, बांकड़ी, सुल्फी, छुरिया, जिसमें बांकड़ी सबसे खतरनाक होती है। ये सब ठोस इस्पात के बने होते हैं, जिसे बनाने वाले कारीगर भी अलग होते हैं। अलग-अलग नामों वाले हथियारों का इस्तेमाल भी अलग-अलग मौके के हिसाब से किया जाता है।यानी खतरनाक तरीके से लड़ना है तो खतरनाक हथियार, सामान्य से लड़ना है तो सामान्य हथियार।
यह खेल पूरे झारखंड में खेला जाता है। यह खेल पहले राजा-महाराजाओं के सौजन्य से लगने वाले हाट-मेले में होता था जहां गांव के आदिवासी लोग अपने-अपने मुर्गे को लेकर पहुंचते थे।बाजी सिर्फ मुर्गे की जीत-हार पर लगती थी।प्रतिद्वंदी मुर्गे की मौत के बाद ही खेल खत्म माना जाता था।
पुराने समय में लड़ाई जीतने के लिए मुर्गे के शरीर में सियार की चर्बी का लेप लगा दिया जाता था, जिसकी बदबू से प्रतिद्वंदी मुर्गा मैदान छोड़कर भाग जाता था।
आज इस पर सट्टेबाजों का कब्जा हो गया है। जिसके पास हाजरा मुर्गा (मुर्गे का एक प्रकार) होता है, उसके पीछे सट्टेबाज सबसे ज्यादा चलते हैं।पहले यह खेल मनोरंजन के लिए होता और घंटे-दो घंटे में समाप्त हो जाता था लेकिन अब तो सिर्फ रांची में ही हर रोज़ किसी न किसी इलाके में यह खेल होता है। एक-एक दिन में 40-50 लड़ाइयां हो जाती हैं। एक लड़ाई पर 20-25 हजार से लेकर लाख-दो लाख तक की बोली लगती है।
मुर्गा लड़ाई का यह खेल एक धंधा है। एक बार हथियार बांधने वाला कम से कम 300 रुपये लेता है। अगर उसने दिन भर में 20-30 के हथियार भी बांध दिए तो पांच-छह हजार तो उसकी जेब में आ ही जाते हैं।इसी तरह मुर्गों के डॉक्टर अलग होते हैं, जो मौके पर इलाज भी करते हैं।उनकी कमाई भी अलग होती है।गांव के जो लोग अपने घरों में मुर्गा पालते हैं उनकी आमदनी भी अब इतनी होने लगी है कि उनके पास घर है,गाड़ी है।
मुर्गे के खेल का समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र अर्थशास्त्र के अलावा अपराधशास्त्र भी है।
जहां मुर्गा लड़ाई का खेल होता है वहां दारू के अड्डे भी चोरी-छिपे चलते हैं।मटके का खेल यानी लोकल लॉटरी (जुआ) भी जमकर होता है।
मशहूर पत्रकार पी साईनाथ की पुस्तक, "तीसरी फसल" में मलकानगिरी की मुर्गे की लड़ाई पर वह लिखते हैं, ‘जब से हथियारों का इस्तेमाल मुर्गे के पैर में होने लगा है, तब से यह परंपरागत खेल खतरनाक हो गया है। पहले जो खेल आनंद के लिए घंटों चलता था, वह चंद मिनटों में खत्म हो जाता है, क्योंकि इतनी ही देर में बिजली की तरह झपटकर एक-दूसरे पर वार करने वाले दो मुर्गों में से कोई एक घायल हो जाता है।"
गीता परिहार
अयोध्या

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Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

जानकारी से भरा आलेख

Gita Parihar3 years ago

जी, धन्यवाद

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

'' मुर्गा लड़ाई '' पर बहुत दिलचस्प, विस्तृत जानकारी..!! बहुत सुन्दर आलेख..!

Gita Parihar3 years ago

जी, बहुत, बहुत धन्यवाद

समीक्षा
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