लेखसमीक्षा
सभी मित्रों को मेरा अमृता पांडे का नमस्कार।
'साहित्य अर्पण एक पहल' परिवार का बहुत-बहुत धन्यवाद। विजेता होने का पुरस्कार मुझे प्राप्त हुआ। पुरस्कार छोटा बड़ा कैसा भी हो हमेशा खुशी देता है और हौसला बढ़ाता है लेकिन जब पुरस्कार में पुस्तक हो तो फिर क्या कहने। अपने वायदे के मुताबिक मैं पुस्तक की समीक्षा पेश कर रही हूं।
सुनील पंवार जी की पुस्तक 'एक कप चाय और तुम' रजिस्टर्ड डाक से प्राप्त हुई। पुस्तक के बारे में काफी समय से सुन रही थी तो पढ़ने की जिज्ञासा भी थी। पुस्तक का नाम मुझे आकर्षित कर रहा था क्योंकि लेखन और एक कप चाय मेरा भी शौक है। संयोग देखिए कि यह मुझे पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हो गई। सुनील जी ने आरम्भ में कबाड़ की दुकान से पुस्तकें लेने का ज़िक्र किया है, ये सच है कि कबाड़ में हमें कई बार महत्वपूर्ण पुस्तकें मिल जाती हैं जो व्यक्ति के जीवन की दशा और दिशा तक बदल देती हैं। पुस्तकों की अहमियत नहीं समझने वाले लोग इन्हें रद्दी के भाव कबाड़ी को दे देते हैं अन्यथा इन पुस्तकों का स्थान तो किसी पुस्तकालय में होना चाहिए।
सुनील जी की इस पुस्तक में छोटी- बड़ी बीस कहानियां है। लगभग सभी कहानियों में मौसम और प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन लेखक ने पात्र की मनोदशा के अनुसार बड़ी खूबसूरती के साथ किया है। प्रेम के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन मिलता है तो सोशल मीडिया के कुछ नुकसानों को भी गंभीरता से कहानी के रूप में व्यक्त किया है। 'बंद कॉटेज' नाम की कहानी में अंत तक रहस्य बरकरार रखते हुए लेखक ने मार्मिकता से ये दर्शाते हुए कि किस तरह पालन करने वाले माता पिता ही कभी-कभी नौजवानों को बोझस्वरूप लगने लगते हैं, वर्तमान पीढ़ी के नैतिक पतन पर अपनी लेखनी चलायी है।
इसी तरह 'सुखिया' नामक कहानी जो चार भागों में है उसमें समाज में फैले जात पात के भेदभाव पर कुठाराघात करते हुए बाल मन की जिज्ञासा और पीड़ा को बहुत ही सुंदरता से वर्णित किया है। 'बिन पते की चिट्टियां' कहानी ने मुझे सबसे ज्यादा विचलित किया। एक बिन मां की बेटी की मनोदशा और उसे मां का प्यार देने वाले एक पुरुष की इस बेमिसाल कहानी में लेखक यह साबित करने में सफल रहा है कि ममत्व और वात्सल्य बाहर से कठोर दिखने वाले पुरुषों के अंदर भी छुपा रहता है और समय आने पर वह बाहर आ जाता है।
'रत्ती भर धूप' नामक कहानी में सुनील जी ने बहुत ही बारीकी के साथ स्त्री मन की पीड़ा, उद्गारों, आशाओं और आकांक्षाओं को उकेरा है।
इसके अतिरिक्त अन्य सारी कहानियां भी पठनीय हैं और कुछ ना कुछ संदेश छोड़ जाती हैं। यहां पर उन सभी का ज़िक्र करके मैं पाठकों की जिज्ञासा को कम नहीं करना चाहती। संक्षेप में, यही कहूंगी कि सामाजिक ताना-बाना बुनती, रूढ़ियों पर कुठाराघात करती, नये सवेरे का भरोसा दिलाती सुनील पंवार जी के यह पुस्तक जिस तरह मुझे पसंद आई, उसी तरह आप सभी पाठकों को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहेगी। मैं सुनील जी के उज्जवल भविष्य की कामना करती हूं।
अमृता पांडे
बहुत सुन्दर । पुस्तक की विशेषताओं को समेटने का सार्थक प्रयास। बधाई।
जी आभार।
जी धन्यवाद।