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बस नंबर 703 दूसरा (अंतिम भाग)
"चलो भई, अब कितनी सवारी और भरोगे?" भीड़ में से बुजुर्ग आवाज़ से मैं दुनियादारी में वापस लौटा।
'अभी तलक आई क्यों नहीं??.. अगर यह बस चल पड़ी तो!!..'
"अरे भाई साहब! सीट पर बैठ जाइए.. बाद में आपको मांगने पर भी सीट नहीं मिलेगी!" किसी ने उन साहब को हिदायत देकर चुपचाप बिठाया तो मेरी जान में जान आई।
'आएगी तो अवश्य। सुबह तो इस बस में ही थी, अर्थात वापसी तो करेगी..और इतना तो आश्वस्त ही हूँ कि इसी बस से करेगी।' मैं परत दर परत उसके विचारों में डूबता ही जा रहा था कि एकाएक खिड़की से दिखती, उसकी धुंधली सी झलक ने मानो, मेरे प्यासे मन को, एक ही झटके में तृप्त कर दिया हो।
छरहरे बदन पर पीला सूट.. बरसात से बचने हेतु, सर पर पीला आसमां ओढ़े,, क्या गजब लग रही थी! कितना वक्त होता है लड़कियों के पास और दिमाग भी.. कि छतरी की मैचिंग सूट से या सूट की मैचिंग छतरी से कर, ऐसे मौसम में भी अपने श्रृंगार में रति भर भी कोई कमी नहीं रखना चाहतीं।
और एक हम 'साले' हैं जिन्हें सुबह पतलून के साथ जचती कमीज़ भी देखने का वक्त नहीं।
अपनी ही बात से, मेरे चेहरे पर हल्की सी हंसी तैर गई और फिर उसे यूं गीली सड़क पर भागते और मेरी ओर बढ़ते देख, मेरी वह हंसी एक बड़ी सी मुस्कान में तब्दील हो गई।
उसके पैरों के टकराव से उछलता बारिश का पानी मानो उछल-उछलकर, मेरे सूखे तन को भिगो देना चाहता हो।
मेरा मन बल्ले-बल्ले हो गया। वक्त थम सा गया। मैं उसकी ओर बढ़ चला। उसने मुझे अपनी ओर आते देख, छतरी एक ही झटके में हवा में उड़ा दी और फिर एक दूसरे के हाथों में हाथ डाले जम के बरस रही बारिश का हम दोनों मज़ा लूटने लगे।
"अरे रोको!"उसकी मधुर आवाज कानों में पड़ी तो मैं मधुर सपने से बाहर आया। बस धीमे-धीमे चलने लगी थी और वह हाथ हिलाकर बस को रुकवाने का इशारा कर रही थी।
मैंने ड्राइवर को इशारा किया। अगले ही क्षण मैं बस के द्वार की निचली पैड़ी पर था और दाएं हाथ से हैंडल पकड़े, बड़ी ही बेहयाई से मैंने अपना बायां हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया।
सच्ची! एक बार तो शाहरुख़ ख़ान वाली अनुभूति हुई।
उसने अपनी बड़ी बड़ी आंखे फाड़, मेरी ओर देखा और फिर, मेरा हाथ, साइड में झटकते हुए, द्वार का हैंडल पकड़ बस में चढ़, दूसरी पैड़ी पर ही खड़ी हो गई। उसके गीले दुपट्टे से टपकता पानी, मेरे पांवों को भिगो रहा था।
और बीच बीच में , हवा के झोंके से मेरे चेहरे पर उड़ता उसका सतरंगी दुपट्टा, आसमां में टंगे इंद्रधनुष सा महसूस करवा रहा था।
अब मेरे पांव भीगना बंद हो गए थे। वह खाली पड़ी मेरी सीट पर जच गई।
पर्स में से नोट निकाल उसने, मुस्कुराते हुए मेरी ओर बढ़ा दिया। अबकि बार का नोट, पूर्व में दिए गए नोटों से भारी था। मैंने भी, प्रत्युत्तर में एक मुस्कुराहट बिखेरी और उससे नोट लेकर रख लिया।
आज उसके होठों पर पहले से बड़ी मुस्कान थी। वहीं खड़ा मैं, कनखियों से उसे निहार रहा था और वह अपने मोबाइल में गुम हो चुकी थी।
यह कैसी विडम्बना है कि कभी-कभार तो छोटे फासले भी किसी पहाड़ चढ़ने से कम नहीं लगते और, कभी-कभी सफ़र लंबा होकर भी इतना सिकुड़ा हुआ प्रतीत होता है कि उसे और लंबा हो जाने की चाहत मन में कुलबुलाहने लगती है।
'सुभाष बस स्टॉप' बस से उतर मैंने ज़ोरदार आवाज़ लगाई। सवारियां नीचे उतरने लगीं।
अपना दुपट्टा, बैग, छतरी सब संभालते हुए अनजानी भी सीट से उठी और बस से उतर सदा भांति मेरे बगल में खड़ी हो गई।
मैंने, उसको उसका नोट ज्यूं का त्युं उसकी ओर बढ़ा दिया, जैसा कि मैं पिछले छः महीनों से करता आया। मैं आश्वस्त था कि हर बार की तरह वह आज भी नोट पकड़ेगी और बदले में एक खूबसूरत सी मुस्कान बिखेर, अपने रास्ते चल देगी।
मगर आज ऐसा नहीं हुआ। उसने मुस्कान तो बिखेरी मगर नोट, यह कहते हुए लेने से इंकार कर दिया कि 703 में यह उसका आखिरी सफ़र है। उसकी जॉब का स्थान चेंज हो गया है।
....
बारिश तेज हो गई थी या मुझे ही लग रहा था। मैं अचंभित सा कभी हाथ में लिए नोट को, तो कभी फुहारों में भीगते, उसे जाते देख रहा था। सोंधी महक, मेरे भारी होते मन को, सुकून पहुंचा रही थी।
हल्की सी हंसी के साथ ही नोट मैंने, अपनी कमीज़ की ऊपरी जेब में रख लिया।
अगले ही क्षण, " हनुमान मंदिर.. हनुमान मंदिर.." चिल्लाता हुआ मैं, टिकट के बंडल हाथ में थामे, बस पर सवार था।
लक्ष्मी मित्तल
उफ़्फ़, कंडक्टर साहब की तो बस छूट गई। ख़ैर मजाक एक तरफ़ लेकिन वाकई बहुत अच्छे से बाँधे रखे थी आपकी कहानी मुझे इसके अंत तक।
उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक धन्यवाद सखी ❤️
मज़ेदार लगी कहानी अनजानी का नाम भी न जान सके बेचारे कंडक्टर साहब...।
सराहना हेतु धन्यवाद सखी