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यादें बचपन की - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कहानीसंस्मरण

यादें बचपन की

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यादें बचपन की

50 वर्ष पहले मैं लगभग डूब ही गई थी,यह तब का वाकया है जब हमारे मकान मालिक का परिवार वैष्णो देवी दर्शन के लिए जा रहा था। उनकी दो बेटियां थीं जो मेरी हम उम्र थीं, वे मुझे भी अपने साथ ले गईं। उन दिनों बसें दर्शन स्थल तक नहीं जाती थीं।बहुत लंबा घुमावदार रास्ता पैदल तय करना होता था,अथवा पिट्ठू की सवारी होती थी।हमें कहा गया कि रास्ते के पत्थरों में भी ईश्वरीय शक्ति है।आप एक के ऊपर एक जितने पत्थर रखो,भविष्य में उतने मंजिल का मकान होगा आपका, हां,पत्थर गिरने नहीं चाहिए। बचपना इतना कि एक बार नहीं ,न जाने कितनी बार रुक - रुक कर 10 - 12 पत्थरों को एक के ऊपर एक रखने की कोशिश करते रहे , डिंग मारते , कि भई,इससे छोटे मकान में हमें नहीं रहना!
दूसरी सुबह 4:00 बजे हम लोगों को झिंझोड़कर उठाया गया। माता के दरबार में दर्शन करने जाना है , नहा लो । हम तीनों ही नहाने का बहाना बना कर बड़े से स्नान घर में आ गए ,पानी छिड़ककर, कपड़े बदल कर बाहर आ गए। डर भी लग रहा था, माता कहीं दंड न दे दें। माता के दर्शन की लम्बी कतार लगी थी, हमें कहा गया था गुफा में प्रवेश करते समय पहले सिर झुका होना चाहिए,पैैर पहले अंदर नहीं डालना चाहिए। इस सिर और पैर का तालमेल न बैठ पाया और मैं अंदर गिर पड़ी, संभलने के प्रयास में दर्शनार्थियों के पैर और टांगे ही मेरे हाथ में आ रही थीं। माता के जयकारे से पूरी गुफा गूंज रही थी, जिसमें मेरी आवाज भी कहां सुनाई देती !जैसे -तैसे किसी ने शायद सहारा दिया,उठ कर खड़ी हुई ।आगे जाकर पुजारी जी को चढ़ावा दिया और बाहर निकल आई।
 बाहर एक गुफा है जिसके अंदर घुटनों के बल प्रवेश करना और दूसरी ओर से निकलना होता है।मान्यता यह है कि अगर आपने पाप किए होंगे तो आप फंस जाएंगे, वरना निकल आएंगे। बचपन के दिन भी क्या होते हैं, हमने गुफा में घुसने को खेल बना लिया, इधर से निकलते उधर से घुसते। खैर, जब  सभी बड़े दर्शन कर आए तो यह हुआ कि नदी के किनारे बैठा जाए और नाश्ता किया जाए।अब तक धूप निकल आई थी। साथ आए कुछ जोशीले भैया लोगों  ने कहा पहले नदी में नहाने का आनंद लिया जाए और वे नदी में  कूद पड़े। उनकी देखा देखी मेरे मकान मालिक की लड़कियां भी पानी में उतर गईं, वह मुझे भी कहने लगीं, आ जाओ। मगर मुझे पानी से डर लगता था।  मैं किनारे खड़ी थी, कुछ देर तक तो वह मुझ पर पानी छिड़कती रहीं।अचानक पता नहीं उनमें से किसी ने मुझे अपनी और खींचा या पीछे से किसी ने धक्का मारा, मैं सिर के बल पानी में थी। मुझे तैरना तो आता नहीं था, सीधे  सिर के बल पानी के अंदर चली गई। ऊपर आने के लिए मैंने हाथ-पांव पाव मारना शुरू किया। ऐसा लग रहा था, मेरे फेफड़े फट जाएंगे ,न कुछ सुनाई दे रहा था न कुछ दिखाई दे रहा था। मैं कभी छिछले पानी में भी नहीं उतरी थी। मेरा दम घुटा जा रहा था, पैरों में पहने हुए सैंडल और कपड़ों का बोझ शरीर पर हावी हो रहा था। आंखों के आगे सब धुंधला हो रहा था, लग रहा था मौत सामने खड़ी थी ।नदी पता नहीं कितनी गहरी थी, यह सब कुछ ज्यादा नहीं शायद 1 मिनट या उससे कम रहा हो, किंतु डूबने का एहसास डूब जाने से अधिक भयावना होता है,यह महसूस किया।
 मेरा मस्तिष्क तो काम कर रहा था, शरीर साथ नहीं दे रहा था, लग रहा था कि मेरे साथ जो हो रहा है, मैं उसकी दर्शक बन गई हूं और कुछ कर नहीं पा रही हूं। मेरे हाथ- पैर भरपूर कोशिश के बाद भी मेरा साथ नहीं दे रहे थे। धीरे -धीरे मेरी चेतना मेरा साथ छोड़ने लगी।
होश आने पर सहेलियों ने कहा , भाग्यशाली है
  दूसरों को किस्सा सुनाने के लिए बच गई ।

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Priyanka Tripathi

Priyanka Tripathi 3 years ago

बहुत सुंदर कहानी

Gita Parihar3 years ago

आपका हार्दिक आभार

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

बहुत रोमांचक संस्मरण..! मुझे पानी से बचपन से कुछ डर लगता है.नदी में पानी के अन्दर के मनःस्थिति होगी, आपकी. सोच के ही भय लगता है..! अविस्मरणीय संस्मरण..! ???

Gita Parihar3 years ago

जी,आज भी सिहरन हो जाती है।

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