कवितानज़्मअन्य
मिले खुदसे हुए एक ज़माना सा लगता है -२
खुद में खुद को ढूंढना कुछ पुराना सा लगता है ।
आओ चले एक ऐसी हवा के संग -२
जिसमें नदी की तरह बहना,बहाना सा लगता है ।
और यूँ तो हर रोज़ देखती हूँ आईना मैं -२
मगर न जाने क्यों ये चेहरा बेगाना सा लगता है ।
भीड़ है बहुत आस पास मेरे ,मगर हर पल तन्हा सी मैं
कुछ धुत्त है मुहोब्बत के नशे में,तो कुछ टूटे हुए है
यहां हर शख्स भावना,दिवाना सा लगता है ।
और यूँ तो मुलाकातों के सिलसिले बहुत है खुदसे -२
मगर न जाने क्यों,खुदसे मिले हुआ ज़माना सा लगता है ।
कुछ गुम सी है मुस्कुरहटें,कुछ कम सी है तस्वीरें भी अब-२
डायरी का हर अक्षर अब,धुंधलाना सा लगता है
और यूँ तो रूबरू हो ही जाएंगे एक दिन खुदसे-२
मगर तब तक के लिए,हर शख्स अंजाना सा लगता है ।
©भावना सागर बत्रा
फरीदाबाद,हरियाणा
वाह क्या खूब कहा निशब्द
जी शुक्रिया