कवितालयबद्ध कविता
स्वरचित मौलिक:: मुमकिन हो सफर हो आसां
मुमकिन हो सफर हो आसां,
अब साथ भी चल कर देखे।
कुछ तुम भी बदल कर देखो,
कछ हम भी बदल कर देखे।।
मुमकिन हो सफर हो आसां..
माना की तुम्हारे पास काम बहुत है,
पर हम भी बेकार नही है।
कुछ तुम भी समझकर देखो,
कुछ हम भी समझकर देखे।।
मुमकिन हो सफर हो आसां..
अकेले तुम कब तक चलोगे,
अकेले हम कब तक चलेगे।
कुछ कदम तुम भी चलकर देखो,
कुछ कदम हम भी चलकर देखे।।
मुमकिन हो सफर हो आसां..
राहें आसान हो जाएंगी
मंज़िल भी करीब आ जाएगी।
सपने भी पूरे हो जाएंगे।
सम्बंध भी प्रगाढ़ हो जाएंगे।।
मुमकिन हो सफर हो आसां..
प्रियकां पान्डेय त्रिपाठी
प्रयागराज उत्तर प्रदेश
सुंदर रचना..!
Thanku??
धन्यवाद् आपका??