कविताअन्य
मज़ाक
अपनी ही लाश पर वह
हँस रही थी
एक भयानक पीड़ादायक
हादसे से अभी अभी
वह गूजरी थी
‘कितने लोग थे’
शोले का ये डायलोग
बूमरांग होकर
उस पर चढ़ा था
हाँ, चार से ज्यादा ही थे
धीरे-धीरे लोग जमा होते गये
स्त्री पुरुष बच्चे सभी
किसीने बच्चों को रोका नहीं
बेधडक वे भी देख रहे थे
शरीर के निचे से बहता खून
चलते गाडी को बंद कर
वे भी आये थे
जो संभ्रांत कहलाते थे
उसकी अनावृत काया को ढांकने
सामने कोई नहीं आया
स्त्री भी कैसे सिर्फ़
तमाशबीन बनी थी
पुरुषों की ऩजरें
कुछ अलग दिख रही थी
शायद जो देखना चाहते थे
वह दिख नहीं रहा था
वह काया सीधी होती
तो मजा कुछ और होता
कुछ औरते रो रही थी
कुछ पुरुष भी ग़मगीन थे
इन रोती हुई औरतों को
और ग़मगीन पुरुषों को
चाबुक से पीटने
उसने चाहा था
लेकिन वह कुछ भी
नहीं कर सकती थी
जैसे इनके माता पिता भी
जब निकाले गये थे
अपने ही घर से
एक बेजुबां, जिन्दा लाश
बनकर ही तो
जी रहे थे
स्वरचित, मौलिक
डॉ.नीलिमा तिग्गा’नीलांबरी’
अजमेर, राजस्थान
19/10/2020
ओह! बहुत ही उम्दा
हार्दिक धन्यवाद स्वाति जी
हार्दिक धन्यवाद स्वाति जी
बेहतरीन रचना ?? एक एक शब्द ने झकझोर दिया।
आपके शब्दों से मन अभिभूत हुआ. हार्दिक धन्यवाद नेहा जी
ओह ! ह्रदयस्पर्शी
आपका बहुत धन्यवाद सरला जी. ऐसा ही परिदृश्य दीखता है आज कल तो मन में भी पीड़ा होती है.