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मज़ाक - Neelima Tigga (Sahitya Arpan)

कविताअन्य

मज़ाक

  • 238
  • 5 Min Read

मज़ाक
अपनी ही लाश पर वह
हँस रही थी
एक भयानक पीड़ादायक
हादसे से अभी अभी
वह गूजरी थी
‘कितने लोग थे’
शोले का ये डायलोग
बूमरांग होकर
उस पर चढ़ा था
हाँ, चार से ज्यादा ही थे
धीरे-धीरे लोग जमा होते गये
स्त्री पुरुष बच्चे सभी
किसीने बच्चों को रोका नहीं
बेधडक वे भी देख रहे थे
शरीर के निचे से बहता खून
चलते गाडी को बंद कर
वे भी आये थे
जो संभ्रांत कहलाते थे
उसकी अनावृत काया को ढांकने
सामने कोई नहीं आया
स्त्री भी कैसे सिर्फ़
तमाशबीन बनी थी
पुरुषों की ऩजरें
कुछ अलग दिख रही थी
शायद जो देखना चाहते थे
वह दिख नहीं रहा था
वह काया सीधी होती
तो मजा कुछ और होता
कुछ औरते रो रही थी
कुछ पुरुष भी ग़मगीन थे
इन रोती हुई औरतों को
और ग़मगीन पुरुषों को
चाबुक से पीटने
उसने चाहा था
लेकिन वह कुछ भी
नहीं कर सकती थी
जैसे इनके माता पिता भी
जब निकाले गये थे
अपने ही घर से
एक बेजुबां, जिन्दा लाश
बनकर ही तो
जी रहे थे
स्वरचित, मौलिक
डॉ.नीलिमा तिग्गा’नीलांबरी’
अजमेर, राजस्थान
19/10/2020

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Swati Sourabh

Swati Sourabh 3 years ago

ओह! बहुत ही उम्दा

Neelima Tigga3 years ago

हार्दिक धन्यवाद स्वाति जी

Neelima Tigga3 years ago

हार्दिक धन्यवाद स्वाति जी

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

बहुत खूब मैम

Neelima Tigga3 years ago

हार्दिक आभार अंकिता जी

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

बेहतरीन रचना ?? एक एक शब्द ने झकझोर दिया।

Neelima Tigga3 years ago

आपके शब्दों से मन अभिभूत हुआ. हार्दिक धन्यवाद नेहा जी

Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

ओह ! ह्रदयस्पर्शी

Neelima Tigga3 years ago

आपका बहुत धन्यवाद सरला जी. ऐसा ही परिदृश्य दीखता है आज कल तो मन में भी पीड़ा होती है.

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