कवितालयबद्ध कविता
जाते जाते दे गई वो मेरी आंखों में पानी
बरसों बाद, एक रोज़...
फिर आई मुझसे मिलने को चिड़िया
न उतरी उस आंगन में,
जहां करती थी दिन भर अठखेलियां
बस बैठी रही मुंडेर पर, गरदन घुमाए
रूठ के बैठी हो, जैसे लाडली बिटिया
नराज थी वो कि
हटाए थे घरोंदे उसके
हमने अपने झरोखों से
न छोड़ी इंच भर जगह,
न संकरे घरों में, और न अपने दिलों में
वह दे रही थी जब दस्तक बंद दरवाजों पे
हम थे व्यस्त मोबाइलों के टॉवर लगाने में
कलरव से उसके,
गूंजता था कभी घर का हर कोना
चली गई वो, हो गया सब सूना
दादी की थाली से उसका खाना चुराना
टपकते नल की बूंदों से, अपनी प्यास बुझाना
बसी है मन में मेरे,
जाने उसकी कितनी ही समृतियां
की मैनें मनुहार भी उसकी
पर वो खामोश सी, ताकती रही मुझे
लिए शिकायतों का अंबार अपनी निगाहों में
मैं भी थी चुप, वो भी थी चुप
पर चला बातों का एक लंबा दौर
हम दोनों के ही इस मौन में
आखिर पहुंच ही गई मुझ तक,
उसके दर्द की कहानी
आह! जाते जाते दे गई, वो मेरी आंखों में पानी
चिंतन करने को मजबूर करती रचना; बहुत बढ़िया
जी शुक्रिया