कवितालयबद्ध कविता
इस चकाचौंध के बीच कहीं
भरमाये से मन के इस
पर्दे के बीचो-बीच,
कुछ काली सी रेखायें खींच
आकर जबरन खडा़ हुआ
चुभता सा एक प्रश्न लगता है
ना जाने क्यूँ आज अधूरा
हर एक जश्न लगता है
अनुत्तरित यूँ आजकल
इंसानियत से जुडा़ हुआ
हर प्रश्न लगता है
जनमन आज
ना जाने क्यूँ
अपनी-अपनी ही धुन में
बस अपने ही ताने-बाने
बुन-बुन के,
बस अपनी ही एक
तंग सी दुनिया चुन के
मग्न लगता है
अपने-अपने दायरों में सिमटकर,
अपने-अपने स्वार्थों से लिपटकर
इस दुनिया के मेले में
होकर यूँ अकेले ये
मानव अपने,
बस अपने ही से
संलग्न लगता है
एक दूजे से दूर-दूर,
अपने ही मद में होकर चूर,
अपनी ही पाली हसरतों के
हाथों यूँ होकर मजबूर
गिरगिट जैसे रंग बदलते
इन मुखौटों के पीछे,
इन तड़कती-भड़कती सी
रंगीं पोशाकों के पीछे
मानव पहले से भी ज्यादा
नग्न लगता है
हाँ, सभ्यता और आधुनिकता के
बडे़-बडे़ दावों के बीच,
मानव खुद को पीछे
आदिम युग में खींच,
खुद ही खुद में उलझा सा
एक प्रश्न लगता है
ना जाने क्यूँ आज अधूरा
हर एक जश्न लगता है
द्वारा : सुधीर अधीर