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"दिखाई"
कविता
खुले आसमानों से जिंदगी को देखना, बहुत ही खूबसूरत सा दिखाई देता है।।
सब जायज़ दिखाई देता है
किस तवील-ओ-कद का है इन्सान
मुझको मिरा अंदर नहीं दिखाई देता
मुझको मिरा अंदर नहीं दिखाई देता
*सफ़र बाक़ी है*
*संजीदा दिखाई दो*
औक़ात
उसीकी नज़र-ए-नायत दिखाई नज़र आती है
उसकी बनाई तस्वीर अलग है
तुम्हारी परछाई दिखाई देती हो
मैंने हिम्मत बहुत दिखाई है
अक्स हमारा ही दिखाई देगा
दर्पण में मुख संसार में सुख
जो दिखाई दे वह सच हो, यह सच नहीं
बुराई में सियासत दिखाई देती है
नहीं पता सच की कैसे सफाई देते हैं
जिस नज़र से देखेंगे दुनिया वैसीही दिखाई देगी @ "बशर "
रोटी भी तमाशा दिखाई देती है
सीना चीरकर उसको कैसे दिखाई जाए
अदाकारी हमसे दिखाई नहीं जाती
भीतर दिखाई भी देती है सुनाई भी देती है
भीतर दिखाई भी देती है सुनाई भी देती है
अक़्ल के अंधों को कुछ नहीं दिखाई देता है
हरबार हरजगह एकजैसे रहते नहीं हैं लोग
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