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"तरह"
कविता
हँसो तो कुछ इस तरह
बदलता आपकी तरह रहा मेरा किरदार नहीं
क्या ? वो भी हमारी तरह बिखर जाते होंगे
हँसो कुछ इस तरह
एहसास को समझूँ
बैरंग सी मैं,कभी धूप तो कभी छाँव की तरह
मेरा मन सुमन की तरह खिला दिया
लो आज पूरी होगई हमारी अधूरी कहानी...
हाँ, हँसो कुछ इस तरह
इस तरह मैं जीना सीख गया
जिंदगी कुछ इस तरह....
तमाम दिनों की तरह
मिट्टी की तरह
धरती और आसमां की तरह
चले आए हम सवाली की तरह
मेहमानों की तरह रहे
हमतो तसव्वुर की तरह खुदही मिट जायेंगे
न जाने किस तरह के ख़यालों में खोते जा रहे हैं
किये जा रहे थे बसर कर के ख़सारा
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