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हँसो तो कुछ इस तरह - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

हँसो तो कुछ इस तरह

  • 232
  • 11 Min Read

हँसो कुछ इस तरह,
हाँ, हँसो कुछ इस तरह,
कि बिखेर दो बिंदास,
कहीं अपने ही आस-पास,
खुश होने की छोटी सी,
मासूम सी कोई वजह

और पा जाओ इस
जिंदगी के दामन में
हँसते-हँसते ही,
आनन फानन में,
खुशनुमा सी, जीने की
एक मुकम्मल सी जगह

हो सके तो हँसना
किसी बच्चे से सीख लो
उस नन्हे से कुबेर के
मन की खुली तिजौरी से,
नन्हें-मुन्ने सतरंगी से सपनों की
रंगबिरंगी सी गुल्लक से
खुशियों के कुछ
सिक्कों की खनक की
एक मुठ्ठी भीख लो

इस खोखली सी दुनिया के
इस खोखलेपन में पलती
खोखली सी हँसी से
बाहर आकर,
हो सके तो थोडा़ हँसना,
मन के किसी
सच्चे से सीख लो

ले लो उससे थोडा़ सा उधार,
मन की गहराइयों में घुमड़ता
नूर की एक बूँद बनकर
आँखों से उमड़ता
ढेर सारा प्यार

और लौटाते रहो किश्तों में,
निःस्वार्थ ही गढ़कर बने
पलकों पे ढलकते मोतियों के
साँचे में पल-पल ढले
प्यार के कुछ रिश्तों में

या फिर हँसी बटोर लो
किसी पेड़ की चोटी पे
हरी-भरी सी पत्तियों का
नर्म बिछौना खोजती,
सूरज के हाथों बिखरी,
कुछ ठिठकी,
कुछ छिटकी-छिटकी,
एक टुकड़ा धूप से

या फिर खोज लो
दो बूँद जिंदगी की
घर के किसी
भूले-बिसरे से कोने में
एक आशियाँ बनाती,
एक छोटा सा जहाँ बसाती
चिडिया में
और उसकी चोंच से
दानों का खजाना लूटते
उसके नन्हे बच्चों के
निश्छल, निष्पाप रूप में

किसी घुटन के बाद मिले
पुरवाई के झोंके में
जिंदगी के दर्शन कर लो

कभी किसी नदी में
माँ जैसी ममता ढूँढकर
दोनों आँख मूँदकर
गीली रेत को कर चंदन,
वंदन, पूजन, अर्चन कर लो

सीख लो कभी-कभी
सही-सही एक मतलब
जिंदगी और बंदगी का,
पत्थर के बदले फल लुटाते
जहर हवा का पीकर खुद
नीलकंठ शंकर बन जाते,
कटती-फटती धरती को
सिलने फिर से अपनी
जडो़ं के धागों से
अंगद सा पाँव जमाते
किसी हरे भरे पेड़ में

या फिर कभी खडे़ होकर
किसी खेत की मेंड़ पे,
अन्नपूर्णा के दानी
धानी से आँचल में
सिमटा सा एक
माँ का चेहरा देख लो

हाँ, हो सके तो मन की इस
भारीभरकम झोली से
छल-कपट के कंकड़-पत्थर
बाहर फेंक दो

हाँ, कभी तो इसको
खिलखिलाती सी हँसी के
साये में खिलते फूलों की
खूबसूरत भेंट दो

साहिल पे उमड़ी नदी सी
दोनों बाँहें फैलाकर
अपने किसी के बन जाओ,
मनभावन सा बन सावन
बरस जाओ

या फिर किसी को भी कभी
अपना बना लो,
हर लमहे में सिमटे एक
मुठ्ठी भर आकाश को
सपना बना लो

आपाधापी की दलदल में
मत फँसो यूँ इस तरह
फिर से उतरकर बालकृष्ण
मन में आकर सिमट जाये
नन्हीं सी बेटी बनकर
छोटी-छोटी सी खुशियाँ आकर
सीने से लिपट जायें,
हँसो यूँ कुछ इस तरह
हाँ, हँसो कुछ इस तरह

द्वारा :सुधीर अधीर

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