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"क़दर"
कविता
सब्र कर
किस क़दर है बशर जरा देखिए दिलका विश्वास उनका
अपना ही दिल लगने लगा है सितमगर
अपना ही दिल लगने लगा है सितमगर
खामोशियां इस क़दर "बशर" नहीं अच्छी
शिद्दत इस क़दर दुआओं ने कर ली
मशक़्क़त से गुजरी है हयात अपनी
वसूक़ ओ यक़ीन से फ़रेब किया
वसूक़ ओ यक़ीन से फ़रेब किया
चाहे भी कोई तो किस क़दर चाहे
कांटे-कैर ना करो
चेहरों की सिलवटों में हमने पढी हैं
जिंदा होने का अहसास हुआ
कांटे न बिछाइये इस क़दर
मंज़िल ख़्वाब नज़र आने लगे
जमाने गुज़र जाते हैं तकरार में
रास्ते भी हैरान रह गए
तुम रह जाओ टूटकर
खुदको व इस क़दर भी ना गिराओ
आग बरस रही है आसमान से
चाहत की सबर नहीं होती
फुटपाथ मखमली बिस्तर हो जाता है
इल्मो-अदब से पुर-नूर शख़्स किस क़दर बदनीयत था
सुकूने-क़ल्ब हवा हुए के इतने ग़रीब हुए
मायूसियां उदासियां छाई इस क़दर नहीं होती
अदावतों पर उतारू हो रहे हैं
बोझ खाली जेबका इस क़दर भारी होता है
लेख
क़दर
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