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"अपनो"
कविता
ये कलयुग का इंसान है
सम्भल जा ज़रा
अपनों से दूर
जब हम किसी के प्यार में होते हैं तो
काश ! मुड़कर देख लेते
खामोशी बातों में
समय
अलविदा 2020
अपनों को अपना हाल बताना मुश्किल हो जाता है
अलविदा 2020
अच्छा हुआ
अपनो के सपने
जिंदगी
खो गये दिन मुहब्बत के
सपनो के वास्ते
सुकूँ से बशर हम सैर करें
मसरूफ़ ओ मश्ग़ूल तो रहने दो
*कदमों में जमाना होता है*
अपनों का हर मुमकिन ए'तिमाद करें एहतराम करें
सबने अपने-अपने देखे
गैरों और बेगानों पर भी ऐतिबार किया
अपने बैठेहैं अपनों से दूर
सपने देखा करो
अपनों को अपना कहने से डर लगता है
हैरत नहीं होती है
अपनों के ही सुख में अपना सुख देखा
कोई अपनों से दूर न रहे
गैरों से ज्यादा अपनों के ग़म मिले
सुकून-ए-क़ल्ब असल सरमाया
पता उसको भी है अपनी जात का
गैरौं से कौन नाराज़ होना चाहता है
पलक पांवड़े बिछाए रखिए
अपनों से जख़्म खाये हैं
अपनों की फ़िक्र से निकलें तो हाल अपना देखें © 'बशर' bashar بشر
बचपन
अपनी ज़रूरत तक अपनाते हैं
रखो माहौल का पूरा ध्यान
मालिक तेरी खैर करे
सपनों से दूर रहता हूँ
उम्र गुज़रगई मनको बहलाने में
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