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बचपन - Rajen Balan (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

बचपन

  • 17
  • 5 Min Read

बचपन के वो खेल निराले जो अपनों के संग खेला करते थे
आधुनिकता की दौड़ धूप से मिलो दूर जो रहते थे
सुख दुख में सब साथी बनते आडंबर का कोई भाव नहीं
बचपन के वो खेल निराले जो अपनों के संग खेला करते थे
आधुनिकता की चकाचौंध ने लील लिया उन अपनों को
जो कभी देखकर झूम उठते बिना किसी झंकारों के
बचपन के वो परिवार निराले जिसकी खुशबू सूरमय कर दे बिना किसी झंकारों के
छोटी सी एक अनहोनी ने पाट दिया परिवारों को
छोटी सी एक अनहोनी ने पाट दिया दिल के अरमानों को
बचपन के वो खेल निराले जो अपनों के संग खेला करते थे
आधुनिक बनने की आड़ में सब भूल रहे अपने संस्कारों को
जहां बहुएं आदर करती अपने घर के संस्कारों का
बच्चे जहां के माना करते अपने घर की बातो को
बचपन के वो खेल निराले जो अपनों के संग खेला करते थे
आधुनिकता की दौड़ धूप से मिलो दूर जो रहते थे
बचपन के वो परिवार निराले जिसकी खुशबू सूरमय कर दे बिना किसी झंकारों के

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