कविताअतुकांत कविता
अंखुआते हैं, कुछ ख्वाब...
हर नए रोज़,
आंखों की क्यारी में....
क्योंकि बो देती हूं,
कुछ बीज ख्वाहिशों के....
हर गुज़रती रात ....
नींद के गमलों में,
निकलते हैं उनमें....
पत्ते, उम्मीदों के ,
नाज़ुक - नाज़ुक हरे -हरे ,
और मुस्कुरा उठते हैं वे,
हर नयी भोर के साथ ....
नरम सुनहरी किरणों में,
जूझते हैं वे अड़ते हैं, और लड़ते भी हैं,
बचाने के लिए अपना अस्तित्व,
इस दुनिया की कठोर हकीकत से....
मगर जेठ की कड़क, दोपहर सी सच्चाई
कुचल ही देती है उन्हें निर्ममता से
होकर निढाल, पा जाते हैं अधिकतर स्वप्न
बेवक्त ही अवसान, ढलती उदास शामों में,...
और फिर उनमें से कुछ
बन जाते हैं, बीज और कुछ खाद,
कि होने को साकार, फिर एक बार ...
अंखुआ सकें कुछ नए स्वप्न ,
हर गुज़रती रात झिलमिलाती आंखों में.....