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हिंदी और हम। - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

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हिंदी और हम।

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#हिंदी दिवस

हिंदी और हम

हिंदी का एक दौर था जब महाकाव्यों और गद्य खंडो की रचना की गई। इस स्वर्णमय काल में कई महान विभूतियों ने इसे संरक्षित, पोषित, पल्लवित, कुसुमित और फलित भी किया।फिर एक दौर आया मैकाले ने हिंदी का नामोनिशान मिटाने की ठान ली,समय ने फिर करवट ली ,जिसने पुनः भारत को यह पहचान करायी कि दिनकर की पंक्तियाँ आक्रोश लाने में और बच्चन की पंक्तियाँ आशा का संचयन करने के लिए सबसे उत्कृष्ट हैं ,और लोगों को हिन्दी पखवाड़ा, हिंदी दिवस, कार्यकालिक हिंदी की अनिवार्यता इत्यादि करने की आवश्यकता पड़ने लगी।यह पुनर्जन्म बस पिछले कुछ वर्षों से शुरू हुआ,जब सबने माना कि भाषा मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, देश की संस्कृति की आत्मा होती है।


अपनी भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम होती है, शुद्ध हिंदी की गरिमा कंप्यूटर क्रांति के कारण कुछ समय के लिए धूमिल सी दिखी,मगर जैसे ही हिंदी के फॉन्ट को इसमें शामिल किया गया, हिंदी ने तीव्रता से अपने स्वरूप को एक अडिग स्थान पर खड़ा कर लिया।सरकारी कार्यालयों से लेकर स्वतंत्र क्षेत्र में भी इसका बहुतायत से प्रयोग होने लगा।

हिंदी का प्रचार प्रसार तो बढ़ रहा है पर भाषा का विस्तार घट रहा है। कोई भी भाषा बाज़ार में बोली के रूप में तो जीवित रह सकती है लेकिन भाषा के रूप में समाज में जीवित रखने के लिए उसका उपयोग हमारे नित- प्रतिदिन के जीवन में और उसका हमारी जीवन पद्दति के साथ सामंजस्य होना भी जरूरी है।


अब एशिया के व्यापारिक जगत में हिंदी ने अग्रिणी स्थान बना लिया है।हिंदी व्यापार की भाषा के एक अंश, बोली के रूप में बढ़ रही है पर यथार्थ में हिंदी का अस्त्तिव बहुत बड़े संकट में हैं। नई पीढ़ी हिंदी लिख नहीं पा रही है जिसका सब से बुरा प्रभाव यह हो रहा है कि लिपियों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। अगर लिपि मर गई, यानी विस्मृत कर दी गई, तो हिंदी भाषा कहाँ रहेगी, वह भी एक बोली बन कर रह जायेगी!जब हिंदी बाज़ार की भाषा रहते हुए रोज़गार की भाषा बनेगी,तब उसका अस्त्तिव भाषा के रूप में और बढ़ेगा।

हिंदी को सिर्फ बाज़ार की भाषा नहीं, रोजगार की भाषा बनाने की आवश्यकता है। इसे संस्कार की भाषा बनाना, सम्मान की भाषा बनाना, भारत की भाषा बनाना और गौरव की भाषा बनाने की आवश्यकता है।

हमारे देश में दो प्रकार के लोग हैं।एक वे जो भारत मे रहते हैं और दूसरे वे जो इंडिया में रहते हैं। इंडिया वाले अँग्रेजी भाषी और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित है और भारत वाले हिंदी या अपनी प्रादेशिक भाषा बोलते हैं और साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। दुर्भाग्य से इंडिया वालों को सुसंस्कृत और विद्धवान माना जाता है। इसलिए भारत वाले इंडिया वाले बनने का प्रयास करते रहते हैं। यही कारण है कि हिन्दी भाषा को आज भी दोयम दर्जा प्राप्त है।अभिजात्य वर्ग हिंदी बोलने,पढ़ने,लिखने को हेय दृष्टि से देखता है इनकीीी बुद्धिमत्ता को कम आंकता है।यही कारण है कि इतनी समृद्ध भाषा होते हुए भी इसे राष्ट्र भाषा का स्थान नहीं मिल सका है।

हमें मालूम होना चाहिए कि हिन्दी भाषा चीनी भाषा के बाद पूरे विश्व स्तर पर सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिन्दी फिजी, गयाना, सूरीनाम,मारीशस , नेपाल,यूं.अरब अमिरात में भी बोली जाती है।
हिन्दी को २०१९ में अबू धाबी में न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता मिल चुकी है।
दिसंबर २०१६ में विश्व आर्थिक मंच ने हिंदी को १० सर्वाधिक शक्तिशाली भाषाओं में शामिल किया है।
अगस्त २०१८ से संयुक्त राष्ट्र ने साप्ताहिक हिंदी बुलेटिन आरम्भ किया है।
विश्व में २५ से अधिक हिंदी पत्र - पत्रिकाएं नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं।
यू ए ई के हम एफ एम सहित अनेक देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। बी बी सी,जर्मनी के डयचे बेले और जापान के एन एच के वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो की हिंदी सेवा विशेष उल्लेखनीय है।
विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों में तथा सेंकड़ों छोटे बड़े केंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन -अध्यापन की व्यवस्था है।हिंदी आज के समय में बहुत अधिक लोगों द्वारा प्रयोग की जा रही है और अपने वर्चस्व को कायम रखे हुए है।


युवाओं का हिंदी भाषा के प्रति गंभीर ना होना चिंता का विषय है। अंग्रेजी का मोह गांवों ,कस्बों, महानगरों में समान है।अंग्रेजी बोलने से अधिक प्रतिभाशाली लगने का भ्रम और अपनी भाषा को दोयम दर्जे का समझना, यह हमारी त्रुटि है।
युवाओं में भाषागत विशुद्ध अनुभूति का अभाव है। उनमें हिंदी बोलने में शर्मिंदगी के भाव देखे जा सकते हैं। विडंबना तो यह है कि वह न तो अंग्रेजी में निपुण हैं और न अपनी भाषा में।उन्हें अंग्रेजी के 26 अक्षर शायद आते हों लेकिन हिंदी के13 स्वर,35 व्यंजन और 4 संयुक्त व्यंजन मिलाकर 52 वर्णों की वर्णमाला का उन्हें शायद ही भान होगा।
इसमें दोष अभिभावकों और शिक्षकों का भी है। विद्यालयों में हिंदी के आधारभूत ज्ञान पर ध्यान नहीं दिया जाता। मीडिया द्वारा हिंदी का प्रसार किया जा रहा है ,जो कि सराहनीय है, लेकिन उनके द्वारा शब्दों का बोलचाल और लिखित रूप में अशुद्ध अथवा गलत प्रयोग भाषा को ध्वस्त कर रहा है।गलत वाक्य अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। मीडिया की भाषा का एक मानक होना चाहिए। यहां परिमार्जन की आवश्यकता है।
हाल ही में हिंदी की नंदन और कादंबिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का बंद हो जाना, हमारे हिंदी के प्रति उपेक्षा भाव को दर्शाता है।
शुभ सूचना यह है कि भारत की नई शिक्षा नीति में हिंदी के व्यापक विकास की संभावनाएं दिखाई दे रही हैं।
हिंदी की शब्द संपदा और इसके मूल चरित्र को बनाए रखना महत्वपूर्ण दायित्व है।इसे सहेजने के प्रयास हमें स्वयं से करने होंगे।अन्यथा जो चीज़ सहेजी नहीं जाती उसका अस्तित्व नहीं रहता।

मौलिक

गीता परिहार

अयोध्या

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

gita ji plz update your profile we are unable to find you on facebook

Gita Parihar3 years ago

Ok,thanks,dear

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

बढ़िया

Gita Parihar3 years ago

बहुत, बहुत आभार

Gita Parihar3 years ago

आभार

समीक्षा
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