कविताअतुकांत कविता
कभी तुमने सोचा है अपना क्या है?
ना जिस्म, ना रूह, ना धड़कन, ना सांसे।
फिर क्यूं ये होड़ ये दौड़ना ये तोड़ना,
जब्त करना सब कुछ और बेवजह की चाहते।
क्यूं आसान नहीं है कि थोड़े में खुश हो ले,
क्यूं सब कुछ पाकर भी नहीं मिलती है राहतें।
क्यूं सुकून की तलाश में भटकते रहे है उम्र भर,
नहीं दे पाते खुद को फुरसत ना पाते है सराहते।
क्यूंकि गर कभी हम गौर करते तो जान पाते,
अपना जहां में कुछ भी नहीं पर सभी में अपनों को ही पाते..
वाह बहुत खूब यथार्थ से भरी कविता
आभार दी। छोटी सी कोशिश।