कविताअतुकांत कविता
ऊँँचाई...
कहते हैं इंसान जितना
ऊंचा उठता है जीवन में।
उतना ही भूलता जाता है
इंसानियत......।
वह भूल जाता है कि
वह भी इंसान ही है।
भगवान नहीं......।
करोगे पाप तो
जाओगे कहां......।
किस दुनिया में
कैसे जी लेते हैं....।
पता नहीं..... किसी पर
अत्याचार करके......।
शायद ! पैसों की दुनिया में।
भूल जाते हैं कहीं......।
या छुप जाता है सब कुछ
पैसों से...... ।
नहीं, जी सकते आप
हजारों साल तक।
तो फिर क्यों करते हो
पाप ! ऊंचा उठने के लिए ।
आखिर जिओगे तो
उतना ही जितना सब
जीते हैं......।
फिर किस बात का
घमंड, ढोंग, अत्याचार।
कर दोगे कुछ एहसान
मनुष्य पर तो......।
रह जाओगे, दिलों में उनके
नहीं तो, जी के भी सौ साल
मिट जाएगी हस्ती ! तुम्हारी।
नहीं, कहलाओगे मानव !
कहलाओगे,तो सिर्फ एक
दुराचारी...... मनुष्य !
मैं नहीं कहती, ऊंचा
मत उठो ,पर रखे रहो
अपने कदम, जमीन पर।
जुड़े रहो मानवता से।
बने रहो....... मानव !
मत बनो...... दानव !
मैंने एक लेख पढ़ा।जिसमें लिखा था एक रईश इंसान ने एक श्रमिक पर गर्म पानी डाल दिए। तभी से मन बहुत दुखी हो गया। कि क्या कोई इंसान ऐसा भी कर सकता है इंसान के साथ......ऐसा क्या आमिरी का घमंड....।
@champa यादव
9/9/20