कविताअतुकांत कविता
बिना बोले
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इतने विरोधाभासों के बीच डोलती नहीं |
क्यों तुम्हारे दर्द तुम्हें मजबूर नहीं करते |
अपने ही बदन के छाँव से तुम्हें दूर नहीं करते |
शब्दों में तो वे बोलते हैं जो बोलना जानते नहीं
जो बोलना जानते हैं उनकी आवाज कहाँ किसी ने सुनी है |
बोलती हैं उनकी आँखें
जाकर जो उनमें झाँकें
सुनते ही नहीं समझ भी जाते हैं
आँखों की उन पुतलियों में
अपना दर्शन वे कर पाते हैं |
देखकर तेरी भाव भंगिमा
किसे तुम्हारे बोलने की फिक्र है
कह देती हैं चेहरे पर उभरती रेखाएँ
जिसका शब्दों से होता नहीं जिक्र है |
मैं तो कहता हूँ तू नि: शब्द हो जा
प्रारंभ और अंत क्या
तू प्रारब्द्ध हो जा |
इस जगत और उस जगत में
हर जगह उपलब्ध हो जा |
कृष्ण तवक्या सिंह
08.09.2020.
बहुत खूब शब्दों की कहानी शब्दों की जुबानी बहुत सुंदर लिखा है आपने
धन्यवाद