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खलिश
गुनगुनाते हुए, अपनी आँखों की पुतलियों पर ठहरे उसके अक्स को आइने में देखने की मैं कोशिश कर रही थी । समझ नहीं आ रहा था मुझे कि मेरा कद छोटा है या आइने का कद ऊँचा !!
वो जो मेरी आँखों में दुबक कर बैठा रहता है हर पल, वो दिख तो रहा था मगर धुँधला - धुँधला !!
रात के आलस को समेट, अपने बिखरे घुँघराले केशों में सामने रैक में रखे टूथब्रश को अटका कर मैंने जुड़ा बना लिया ।
आज की भोर अलहदा थी, सारी रात हुई बारिश की नमी मेरी आँखों से हो कर गुजरी थी ।
नभचर बाहर बगीचे में गुलाब के पोधों के साथ कलरव कर रहे थे, और कुछ कबूतर अमरूद के पेड़ के पास जमें हुए पानी में अठखेलियां कर रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों जन्मों से प्यासे, पानी को आलिंगन कर हृदय कि पीड़ा को शांत करने की कोशिश कर रहे हो, पड़ोस में वर्मा जी के घर में गाय रम्भा रही थी शायद उसका प्रसव नजदीक था, पर मुझे क्या पीड़ा हैं ? मैं समझ नहीं पा रही थी। प्रकृति के अनुपम रूप में भी मुझे विद्रूपता ही दिख रही थी ।
मैं बगीचे की गीली दूब पर नंगे पैर चलने लगती हूँ पर मुझे गीली घास की नमी ज्वारभाटे से निकले लावे सी प्रतीत हो रही थी । उल्लास के स्थान पर मैं तपिश मेहसूस करने लगती हूँ ।
मैंने तुरंत अपने पैरों में पास रखी चप्पल पहनी और अपने हाथ में पकड़े हुए अपने मोबाइल में समय देखा, सुबह के छह ही बजे थे केवल।
ऐसा लग रहा था मानो बगीचे में रेंगते केंचुओं से प्रभावित हो वक्त ने उससे, अपनी ताल मिला ली थी ।
कुछ सोचते हुए अन्दर जाकर गैस के चूल्हे पर दूध रख दिया और एक मग में कॉफी और चीनी को पानी की मदद से फेंटने लगी । थोड़ी ही देर में मेरे हाथ की रफ्तार मेरीगोल्ड झूले की तरह घूमने लगी और कॉफी की महक मेरे नथुनों में जाने लगी पर आज उस महक में वो सम्मोहन नहीं था जो मुझे कॉफी पीने के लिए पुलकित कर सके । गैस पर खदकते दूध पर नज़र गई, वो किसी पोपले मुँह वाली वृद्धा की तरह बड बडा रहा था।
मैंने गैस बन्द कर दी और आँगन में सूख रहे कपड़ों को अन्दर मेज़ और कुर्सी पर बिखेर दिया । घड़ी के लंगर में से निकली कोयल कि आवाज़ ने बताया अब सात बज चुके हैं, मतलब स्नातक के द्वितीय वर्ष के छात्र - छात्राओं की कक्षा लेने में अभी एक घंटा बाकी हैं । कोरोना की वजह से ऑनलाइन क्लासेज लेने के अलावा कोई और विकल्प बचा ही नहीं था किसी के पास ।
स्नान करते समय देखा बालों का टूथब्रश से जुड़ा बना हुआ है, अमूमन ऐसी हरकतों पर मुझे जोर से हँसी आया करती हैं, पर आज मेरे होंठो तक मुस्कुराहट भी नहीं अायी ।
शॉवर की बौछार से थिरकन होने लगी जबकि मैं हमेशा ठंडे पानी से ही स्नान किया करती हूँ । फिर मैंने गीज़र चालू किया, अब मैं स्नान के लिए पानी को सामान्य पाती हूँ । तैयार होने के नाम पर आँखों में काजल और होंठो पर लिपस्टिक लगा ही रही थी कि, आँखों और होठों पर लगा जैसे कोई हैं !! और अब उसके होने से मुझे किसी बाहरी श्रृंगार की आवश्यकता नहीं लगी ।
मैंने खुदको गौर से देखा अब मुझे अपने अक्स में वो दिखा जिसे कॉफी नहीं, चाय पसंद है , जिसे घास पर नंगे पैर चलना पसंद नहीं, जिसे हर छोटी बात पर ठहाका लगाना नहीं आता, जो बारह महीने गरम पानी से ही स्नान करना पसंद करता हैं । अब धीरे - धीरे मुझे कुछ समझ अा भी रहा था और नहीं भी ।
मैंने कक्षा लेने के लिए लैपटॉप ऑन किया पर बमुश्किल चार छात्र ही ऑनलाइन दिखे। पिछली रात देर तक बारिश की वजह से कुछ इलाकों में रात से बिजली नहीं थी । बच्चों के कहने पर उन्हें कुछ काम दे कर मैं भी ऑफलाइन हो गई अब दूसरी कक्षा ग्यारह बजे थी ।
मैं बैठक में आराम कुर्सी पर अपने दुपट्टे को चेहरे पर ढक आँखे मूँद लेती हूँ । तभी धीरे से मेरी आँखों से रबर कि गेंद की तरह लुढक कर वो मेरे कंधे के काले तिल को मुड्डा समझ उस पर बैठ जाता है और उसके पैर जमीन पर बिछे कालीन तक पहुँच जाते हैं । मैंने अपने दाए हाथ से उसके पैरो के तलवे पर गुदगुदी करनी शुरू कर देती हूँ पर वो हंसा नहीं और मैं भी नहीं, अमूमन ऐसी हरकतों पर मैं बहुत हंसा करती थी।
फिर उसने अपने सर को नीचे करते हुए मेरे चेहरे से दुपट्टे के नकाब को रुकसत किया और मेरे चेहरे की ओर देखते हुए अपने बाए हाथ से मेरे गालों पर हल्की सी चपत लगाते हुए बोला, "पागल लड़की किसी को इतना प्यार नहीं करते।" जाने क्या हुआ मैं सुबकने लगी और मेरे मुँह से बार - बार ये ही निकल रहा था, "आई लव यूं !!" उसने अपने दोनों हाथों से मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों में समेट लिया और अब मैं, उसकी साँसों की गर्माहट को महसूस कर रही थी जो मुझे ठंडी बयार सी लग रही थी ।
मैंने उससे कहा, " तुम कहते हो तुम हर पल मेरे साथ होते हो, मैं तुम्हे पूरा दिन बाँध कर रखती हूँ , तुम मुझसे दूर कहीं और जाना ही नहीं चाहते ।" "फिर तुम मुझे दिखते क्यों नहीं ?" "यकीन हो गया मुझे अब तो, कि तुम छलिया ही हो ।" "चलो, वादा करो हर पल मेरे साथ ही रहोगे ।"
तभी वो मेरे कांधे से उचक कर, उतरा। पर जब वो बैठा था तब भी मैंने उसका भार महसूस नहीं किया था और अब जब वो मेरे कांधे से उतर गया है तो उस स्थान पर मात्र रिक्तता ही महसूस हुई, पर हल्का जैसा कुछ ना लगा।
अब वो जाने लगा, तो मैंने, उसके लबों पर अपने लबों से अपनी याद रख दी। ताकि अब से उसे हर घूँट पर मेरी याद आए और मैं हर घूँट के साथ उसे अपने करीब पाऊं हमेशा।
वो ना जाने क्या कुछ कहना चाहता था मुझसे, पर उसने मुँह से कुछ ना कहा, हा उसकी आँखे जरूर उसके होठों से बगावत कर मुझे बहुत कुछ कह गयी थी जैसे, "हर शाम वो मेरा ही रास्ता देखता हैं, बारिश की हर बूंद वो मुझ पर उंडेलना चाहता है, अपनी सारी बातों के खज़ाने की अशर्फियां वो केवल मुझ पर उबारना चाहता है, अपनी थाली से एक कौर मुझे और एक कौर खुद खाना चाहता है।"
मैंने उसके अनकहे शब्द जो मूक भाव में मेरे जेहन तक आए थे को समझते हुए, उसके सीधे हाथ की चिटकली उँगली को अपनी उल्टे हाथ की चिटकली उँगली में फँसाकर उसके कानों में फुसफुसा कर कहा,"इतने करीब आकर भी ऐसे लगते हो जैसे अर्णव में चाँद या सूरज की परछाई ।"
स्वरचित मौलिक रचना
रूपल उपाध्याय