कहानीसंस्मरण
तितलियां औ वितलियाँ...
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तू गुप्ता की दुकान से फ़िर वही माचिस का पूड़ा उठा लाया. तेरे को साफ़ समझाया था कि चाबी छाप माचिस का ही पैकेट लाना...
बहुत डांट खाई इस बात पर. लेने कुछ और जाता था और ले के कुछ और आ जाता था...!
राशन कार्ड ले राम मंदिर के बाजू के पीछे वाली बाजपाई की राशन की दुकान के सामने लंबी लाइन और कमलेश्वर नायडू, चिताली-मिताली-सोनाली के घर से आगे ढ़लान की तरफ़ लुढ़कती लाइन जो फ़िर किशोर उमडेकर दादा के घर सामने जाने को आतुर रहती मानों सामने ही बिजली घर में बिजली का बिल भी जमा किया जा सके... जरूरतों के समुंदर में मिलने वाली दो अनूठी नदियों का संगम स्थल...
मैं काफ़ी चतुर था इन फालतू के मामलों में... गणित में कमज़ोर पर हिसाब लगाने में चतुर... एक के बाद दूसरे का नंबर कोई सात मिनिट बाद आ रहा था और मेरा नंबर कोई सत्तरवा था. सत्तर को सात से गुणा कर मेरे नंबर आने की गणना करना मैं अपने हाथों अपने आप की तौहीन समझता हूं... आप ख़ुद अंदाज़ा लगाएं कि राशन की दुकान मेँ मैं जो सामान लेने आया हूं, वो इस गति से मुझे कितनी देर में प्राप्त होगा.
बिजली का बिल जमा करने वाले भी बहुतेरे थैलियां ले के आये थे... अंदाज़ा लगाया जा सकता है... दोनों कतारें एक ही दिशा में समानांतर रखते हुवे बुधनी स्टेशन तरफ़ बढ़ने को आतुर... जहाँ के(और बरखेड़ा के भी) गुलाब जामुन विश्व प्रसिद्ध... ऐसा मुझे नागपुर जाते आते मेरे बाबू जी नें कई बार बताया और हर बार खिलाया भी.
उन्हीं गुलाब जामुन के जैसे बनाने की तैयारियां आज होंने जा रही हैं और चाशनी के लिए शक्कर आ जाये तो मिठास अनूठी होगी... तदैव मैं पैसे, राशन कार्ड, थैला लिए मोटे थुलथुल बाजपाई जी की दुकान आ कार्ड जमा कर, लाइन में लगने की गुंजाइश तराशता भट्ट जी के घर के सामने आ खड़ा हुआ.
अरे, ये तो दीपशिखा स्कूल में पढ़ने आती है... तितलियां पकड़ने को आतुर... एक एक तितली उसे छकाने में माहिर... रंग बिरंगी तितलियां... और एक बिचारी वो...
सुनों, ऐसे हाथ हथेली से पकड़ न आएंगी... मेरा ये झोला पकड़ो... झुंड की तरफ़ दौड़ो, एक नहीं अनेक वितलियाँ झोले में समा जाएंगी...
मैं तितली पकड़ना चाहती हूं, तुम वितली बोल रहे हो... अरे तुम तो मैडम के लड़के हो...!
मैं फ़िर कह रहा हूँ, मेरी विधि से पकड़ो, ख़ूब सारी कुंतलियाँ पा लोगी, बहस मत करो... जो कह रहा हूँ करों, नहीं तो हाथ मलो... एक भी सतली हाथ नहीं आएगी...
राशन की दुकान की लाइन बहुत आगे खिसक चुकी थी. बिजली वालों का ऑफिस भी बंद हो चुका था...
किशोर दा के घर जा एक गिलास पानी मांगा, कुमुद मौसी पानी ले के आईं...
"क्या करने आया था"...?
सख़्त आवाज़ में पूछा...
राशन की दुकान आया था. लाइन में लगा था. कुंतलियाँ मुझे घेर गईं...
घर में गुलाब जामुन बनाने हैं मां को...
उनकी तरफ़ से कोई समाधान तो न था पर एक मीठी सी मुस्कान थी... हर स्तिथि का सामना करने के इरादे से घर पहुंचा. मां बाहर बरामदे में ही थी.
"कितनी देर लगा दी, कहाँ उलझ गया था, चल जल्दी हाथ मुंह धो, तेरे बाबू जी कब से पीढ़े पर बैठे हैं,तू भी आ जाये तो सब मिल बैठ खाएं... बड़ा मज़ा आएगा तुझे, और गुलाब जामुन तो लाजवाब बने हैं..."
बहुत जीम, मीठी नींद ले शाम सीधे उस घर की तरफ़ भागा, जहां छोड़ आया था मैं अपना थैला...
गुप्ता की दुकान की माचिस की एक काड़ी जलाओ तो पूरी डिब्बी सुलग जाती थी.