गजल
सुनकर कोई आवाज़ कुछ कहता भी नही।
गुमसुम सा वो आजकल हंसता भी नही।
कब से वीरान पड़ा है उसका खुला मकां,
अब तो करीब से कोई गुज़रता भी नही।
धीरे से सुना है, कभी उसे चीखते हुए,
ये ओर बात है कि वो रोता भी नही।
खुद में जलजल के कम्बख़्त राख हो गया
आँच सहने वालों को ये पता भी नही।
ना जाने कब से बैठा है, ऊँची इमारत पे,
क्या इरादा है उसका कि उतरता भी नही।
भागा भागा वो अचानक, धम से गिर पड़ा,
अपने वजूद की दौड़ में सम्भला भी नहीं।
मशहूर है'मनी', वो खुद की दुनिया में बहुत,
शायद ज़माने से उसका अब रिश्ता भी नहीं।
शिवम राव मणि