लेखआलेख
अतीत के सुनहरे दिन..
: संस्मरण आयोजन 2021
" बचपन की मधुर स्मृतियाँ "
" अतीत के सुनहरे दिन '' के नाम मात्र से शायद हर किसी को अपना बचपन ही याद आता है.. क्योंकि बाद में तो बढ़ती ज़िम्मेदारियों के साथ.. अक्सर.. जीवन की कठोर वास्तविकताऐं.जीवन्त होने लगती हैं. ." सुनहरे दिन " रहने ही नहीं देतीं.
मुझे भी अपने छोटे से ग्रह नगर में बिताए बचपन के सुनहरे दिन बहुत याद आते हैं.. वहां, काफी बड़े सम्मिलित परिवार मे.. बाबा, दादी, चाचा, उनके परिवार के, सदस्य.. अपने भाई बहनों के साथ गर्मी की छुट्टियों में बहुत अच्छा समय व्यतीत होता..!
मैं बहुत उत्सुकता से छुट्टियों की प्रतीक्षा करता..वैसे भी किसी के विवाह.. तथा अन्य समारोहों में जाना होता. तब भी बहुत अच्छा लगता , वहां जाने का अर्थ जैसे कोई खज़ाना मिल जाना.
हमारी प्रिय बुआजी..दिल्ली से, अपने बेटे के साथ आ जातीं.. खूब बड़ा, खुला हुआ घर..बड़े बरामदे, छत, आंगन, लान .. जहां हम सब ख़ूब खेलते. पानी के लिए नल के अतिरिक्त दो कुंए भी थे, एक घर के बाहर सिंचाई आदि के भी काम आता.
छोटा शहर, एक पिक्चर हाल जो लक्ष्मी टाकीज कहलाता था. उसके मालिक परिचित थे, हम बच्चे लोग कभी-कभी वहां कुछ देर ऐसे ही पिक्चर या न्यूज़रील देख लेते थे.शहर की पहचान. "कचहरी, कम्पनी बाग,एक तलैया, रेलवे - स्टेशन और कुछ सड़कें थीं.शहर में आम के कई बाग थे. घर के रास्ते में बहुत से व्रक्ष दिखते थे. हम लोग कभी कभी रेलवे स्टेशन घूमने भी जाते, एक चाचा हम लोगों को वहां के रेस्टोरेंट में चाय, टोस्ट आदि खिलाते.. स्टेशन भी हम लोगों के घूमने का एक प्रिय स्थान हुआ करता था..
हमारे पैत्रिक गांव से भी बहुत से परिचित, सम्बन्धी अपने काम से आते रहते.. और रात्रि में घर पर ही रूकते.
कुछ दिनों के लिए.. हम लोग भी, कभी कभी गांव जाते..थे, आम के बाग से आम तोड़ कर खाते. खूब घूमते..
ग्रह नगर में भी सीज़न पर,गांव से बैलगाड़ी पर लदकर आम आते.. हम लोग. कम पके आम, भूंसे वाली कोठरी और अन्य जगहों पर छिपा देते, बाद में खाते..
हमारा ग्रह नगर, हरदोई... 'लखनऊ और बरेली' के मध्य वाली रेलवे लाइन पर स्थित है.. गांव भी पैसिन्जर द्वारा. करीब 25 मिनट लगते थे.
गर्मी की छुट्टियों में, दोपहर में.. बड़े लोग अक्सर पचीसी ( चौपड़), या "ट्वेंटी नाइन " खेलते..हम लोग भी बाद में कभी-कभी पचीसी खेलते और बड़ों की स्टाइल की नकल करने का प्रयास करते.. शाम को क्रिकेट आदि खेलते.
बारिश में सड़क के सामने के गड्ढों में पानी भर जाता था, मौसम बहुत अच्छा हो जाता.. मेढकों की आवाज़ सुनायी पड़ती..
बहुत अच्छा लगता. कमरों की छत ऊंची होने से गर्मी में भी अच्छा लगता.
तेज़ पानी में हम लोग काग़ज़ की नाव बना कर चलाते.. गर्मियों में हम सब छत पर सोते. रात को कभी बारिश होती तो बिस्तर लेकर कमरों में भागते..
सब लोगों के साथ बहुत अच्छा लगता. बड़ी सी रसोई में चूल्हों पर खाना बनता, महराज या महराजिन सुबह से व्यस्त रहते.
रसोई के सामने चौके बने हुए थे, उसमें बैठ कर सब बारी बारी से पाटे पर बैठकर खाना खाते.
चाय के लिए कमरा अलग था, जिसमें बड़ी से मेज के चारो ओर, कुर्सियां पड़ी रहती थी. वहां सुबह शाम सब लोग चाय, नाश्ते के लिये इकठ्ठा होते. खूब मज़ा आता.. एक बड़े से कमरे में दाल, चावल, गेहूं और बहुत से सामान रखे रहते.. उनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं, उसे बड़हर वाला कमरा कहा जाता था. वहां कभी-कभी हम लोग खेल में छुप जाया करते थे.
जुलाई के पहले सप्ताह में स्कूल खुलते, भारी मन से हम वापसी की तैयारियां करते, मन उदास हो जाता. सभी लोग और रूक जाने का आग्रह करते, बच्चे, कभी-कभी कुछ सामान छिपा देते.
स्टेशन पर सभी भाई, मित्र छोड़ने आते, तब सामान भी कुछ अधिक होता था, बक्सों और होल्डाल का प्रचलन था, एक आम की टोकरी भी अवश्य होती थी
. रेलवे स्टाल से हम लोग पत्रिकायें खरीदते. पढ़ने का शौक तब भी था. ट्रेन आने पर एकदम चहल-पहल बढ़ जाती. सब लोग दौड़ कर डिब्बे में सीट देखते. ट्रेन चलने पर हाथ हिला कर विदा लेते.
हम लोग उदास मन से खिड़की के बाहर के द्श्य में मन लगाने का प्रयास करते. भागते हुए पेड़, पौधे.., स्टेशन , सामने की पटरी पर दूसरी ट्रेन निकलने की खास आवाज़.. बाल मन को आकर्षित करती .. लखनऊ में कभी-कभी दूसरी गाड़ी के लिए देर तक इन्तज़ार करना होता.
लखनऊ के
रास्ते में, काकोरी स्टेशन आने पर, क्रांतिकारियों द्वारा खजाने की लूट और उसका उपयोग आज़ादी के आंदोलन चलाने के लिए करने की जानकारी. माता-पिता देते. सन्डीला आने पर वहां के प्रसिद्ध लड्डू, छोटे-छोटे , मिट्टी के घड़ों में मिलते, लड्डू वाले प्लेटफॉर्म पर ख़ूब आवाज़ें लगाते..
. मलीहाबाद शुरू होते ही आमों के बड़े-बड़े बागों की पंक्ति प्रारम्भ हो जाती.. जो दूर तक चलती, बहुत अच्छा लगता.
लखनऊ पहुंच कर हम कानपुर के लिए गाड़ी बदलते.. तब ट्रेनें कम थी अतः अक्सर इन्तज़ार करना पड़ता.. गाड़ी में ही हम लोग लायी गयी, पूरी, सब्ज़ी. अचार निकाल कर खाते.सुराही का पानी पीते . यात्रा के दौरान पूरियों का स्वाद बहुत अच्छा लगता, चाय स्टेशन पर कुल्हड़ में मिल ही जाती. मिट्टी की सोंधी खुशबू मन मोह लेती..
किन्तु वापस पहुंचने पर बहुत खराब और अकेला सा लगता था, यहां का घर, आंगन छोटा लगता, स्कूल जाने का भी मन नहीं होता..
लेकिन धीरे-धीरे जीवन अपने पुराने ढर्रे पर लौटने लगता.
और कोई चारा भी नहीं था.
बड़ी क्लास में जाते-जाते, वहां जाना कम होता गया
शहर की सिंगिल रोड चौड़ी होने लगीं.. किन्तु बाग, बगीचे और हरीतिमा धीरे धीरे गायब होने लगी. और बहुत से परिवर्तन द्रष्टिगत होने लगे. वहां आना जाना अब केवल विशेष अवसरों तक ही सीमित हो के रह गया..
किन्तु घर, गांव का आकर्षण हमेशा बना रहता है . अतीत के सुनहरे दिन जैसे हमेशा के लिए, मानस पटल पर अंकित हैं.. जिनकी कल्पना मात्र से मन आनन्द विभोर हो जाता है.
कमलेश वाजपेयी
नोएडा
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बहुत बढ़िया संस्मरण दादा-दादी के ज़माने के,जो खुद दादा दादी बनने पर भी शायद इंसान नहीं भूल पाता है।
अम्रता जी.. धन्यवाद..!