कवितालयबद्ध कविता
चित्त को अपने लोह बनाकर
भय की शिला को तोड़ दे आज।
खुलने दे वो गिरह
जो कब से है मन के भीतर
कश्मकश सी, कलह सी
जो डराती है, रुलाती भी है
जो गैरत लम्हों को जिंदा रखे है
अतीत की यादों को इकठ्ठा किये है
जहां उमंगो से भरा कोतुहल,
भिनन भिनन सुबह में
पक्षियों का कलरव
बिना सुने हुए अभी भी
एक दौर गुज़र रहा है
इस दौर को अब भूल जाने दे
चाहें गम नज़र से उतर जाने दे आज
रात की झिलमिल को उतार
देख कि कितना उजाला फैला है
इस उजियारे में एक नई राह खोज
पुराने रास्तों को छूट जाने दे
फिर फैला अपनी बाजुएं
और महसूस कर वो हवाएं
जो तुझे कहीं दूर धकेलती है
उस अवसाद के भंवर से
जो तुझे भरमाये रखती हैं
ऐसी उलझनों को सुलझ जाने दे
खुद से खुद को बतियाने दे आज
चित्त को अपने लोह बनाकर
भय की शिला को तोड़ दे आज।
शिवम राव मणि