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नवरात्रि का महत्व और तैयारी - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

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नवरात्रि का महत्व और तैयारी

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नवरात्रि का महत्व और तैयारी
नवरात्रि को माँ-दुर्गा की अवधारणा भक्ति और परमात्मा की शक्ति और परम रचनात्मक ऊर्जा की पूजा की सबसे शुभ और अनोखी अवधि माना जाता है। नवरात्रि पूजन वैदिक युग से पहले, प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा है। वैदिक युग के बाद नवरात्रि के दौरान की भक्ति प्रथाओं में मुख्य रूप गायत्री साधना का हैं।

नवरात्रि वर्ष में चार बार आती है।हिंदू धर्म में शारदीय वह चैत्र नवरात्रि का विशेष महत्व माना गया है।ऐसा इसलिए क्योंकि इसी दिन से हिंदू नव वर्ष यानि कि नव सम्वत्सर प्रारंभ होता है।इन दिनों प्रकृति से एक विशेष तरह की शक्ति निकलती है। इस शक्ति को ग्रहण करने के लिए इन दिनों में शक्ति पूजा या नवदुर्गा की पूजा का विधान है। इसमें मां की नौ शक्तियों की पूजा अलग-अलग दिन की जाती है।
नवरात्रि का महत्व सिर्फ धर्म, अध्यात्म और ज्योतिष की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी है।पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल में एक साल की चार संधियां होती हैं। जिनमें से मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली शारदीय व चैत्र दोनों नवरात्रि ऋतु परिवर्तन के दौरान आती हैं। ऐसे में बदलते मौसम के समय रोग, जिन्हें आसुरी शक्ति कहते हैं, फैलने की सर्वाधिक संभावना होती है।इनका अंत करने के लिए हवन-पूजन किया जाता है। जिसमें कई तरह की जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों का प्रयोग किया जाता है। नवरात्रि के दौरान व्रत और हवन-पूजन स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उत्तम है।

नवरात्रि की तैयारी

मां के लिए घट और चौकी की स्थापना की जाती है।सबसे पहले जौ बोने के लिए एक पात्र की आवश्यकता होती है जिसमें कलश रखने के बाद भी आसपास जगह रहे।यह पात्र मिट्टी की थाली समान होता है। इस पात्र में जौ उगाने के लिए शुद्ध मिट्टी की एक परत बिछाकर बीच में कलश रखने की जगह छोड़कर बीज डाल देते हैं।उस पर एक और परत मिट्टी की बिछा कर एक बार फिर जौ डालकर फिर से मिट्टी की परत बिछाने के उपरांत जल का छिड़काव कर देते हैं।
एक लकड़ी की एक चौकी को गंगाजल से पवित्र करते हैं।उस पर लाल कपड़ा बिछा देते हैं।अब कलश तैयार करते हैं। कलश पर स्वस्तिक बनाकर मौली बांध दी जाती है। कलश को थोड़े गंगाजल और शुद्ध जल से पूरा भर कर साबुत सुपारी, फूल,दूर्वा, इत्र, पंचरत्न सिक्का, पांच प्रकार के पत्ते कुछ इस तरह डालते हैं कि कुछ पत्ते थोड़े बाहर दिखाई दें।चारों तरफ पत्ते लगाकर ढक्कन लगा दिया जाता है।इस ढक्कन में अक्षत अर्थात साबुत चावल भर देते हैं।एक नारियल को लाल कपड़े में लपेटकर मौली बांधकर कलश पर रखते हैं। नारियल का मुंह आराधक की ओर होना चाहिए। यदि नारियल का मुंह ऊपर की तरफ हो तो उसे रोग बढ़ाने वाला माना जाता है। नीचे की तरफ हो तो शत्रु बढ़ाने वाला मानते हैं। पूर्व की ओर हो तो धन को नष्ट करने वाला मानते हैं। नारियल का मुंह वह होता है, जहां से वह पेड़ से जुड़ा होता है।इस कलश को जौ उगाने के लिए तैयार किए गए पात्र के बीच में रखकर नौ दिन तक जलने वाली माता की अखंड ज्योति जलाकर देवी- देवताओं का आह्वान करते हुए प्रार्थना की जाती है।मां दुर्गा को वस्त्र, चंदन, हल्दी, कुमकुम, सिन्दूर, अष्टगंध आदि अर्पित करते हैं।कलश की पूजा कर,कलश को टीका करते हैं, अक्षत, फूलमाला, इत्र,नैवेद्य यानी फल-मिठाई आदि अर्पित करते हैं।
श्रद्धानुसार दुर्गा सप्तशती पाठ, देवी मां के स्तोत्र, सहस्रनाम आदि का पाठ करते हैं।सभी नौ दिन देवी मां का पूजन तथा जौ वाले पात्र में जल का हल्का छिड़काव करते हैं। जल बहुत अधिक या कम नहीं बल्कि इतना कि जौ अंकुरित हो सके। ये अंकुरित जौ शुभ माने जाते हैं। यदि इनमें से किसी अंकुर का रंग सफेद हो तो उसे बहुत अच्छा माना जाता है। यह दुर्लभ होता है।
गीता परिहार
अयोध्या

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

बहुत सुंदर

समीक्षा
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