कवितालयबद्ध कविता
तुम, यानी मैं
कुछ कहना
तो आहिस्ते से कहना
खुद से कभी दो लफ्ज़ भी।
कोई नही मगर खुदा सुनता है
हर वो ख्याल
जो मन ही मन बुदबुदाते हो तुम
किसी से ज़ाहिर नही करते
मगर फुसफुसाते हो तुम
कभी घुटते हो अंदर ही अंदर
कभी खुश हो जाते हो जैसे खुला समंदर
कभी दुखी हो जाते हो बरसात की तरह
कभी चुप हो जाते हो समझदार की तरह
कभी बातों की तो लड़ियाँ लगाते हो
कभी खामोश अनजान रह जाते हो
तन्हा इक लम्हा भी खोजते हो
तकदीर को तुम बार बार कोसते हो
कभी हौसलों को बांध, खुद ही तोड़ते हो
हार गया हूँ मैं, ये भी कहते हो
फिर खफा हो जाते हो खुदा से तुम
क्योंकि अनजान नही है वो
मगर क्यों है गुमसुम
ना कुछ कहता है
ना कभी आता है
परेशां मुझको ना कभी हँसाता है
छोड़ दिया है अकेला इस शहर में
हो गया हूँ बेकस सबकी नज़र में
मन ही मन एक सवाल उठता है
खुद ही जवाब ढूंढता हूँ
और एक मलाल रह जाता है
कि शायद कभी तो सुने
आ मेरे पास बैठे,
तो कहूँ में हाल-ए-दिल अपने
मगर तब तक, तुम यानी मैं
कुछ कहना तो आहिस्ते से कहना
खुद से कभी दो लफ्ज़ भी
क्योंकि कोई नही,
मगर खुदा तो सुनता है।
शिवम राव मणि
बहुत खूब प्रिय सर,आपकी रचनाओं को पढ़कर सुकून मिलता है।
मनोबल बढ़ाने के लिए आपका शुक्रिया