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कतरा-कतरा, बूँद-बूँद - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

कतरा-कतरा, बूँद-बूँद

  • 213
  • 9 Min Read

कतरा-कतरा,
बूँद-बूँद,
हर लमहे में
खुद को ढूँढ-ढूँढ,
पीकर इसको घूँट-घूँट,
जीवन को बहने दो

हर लमहे में सिमटकर,
इसके हर अहसास से
लिपटकर-लिपटकर
इस जीवन को रहने दो

जीवन-धारा के
हर लमहे को,
पलकों पर बिखरी-बिखरी,
मोती बन निखरी-निखरी,
उजली-उजली आस बन,
अपनी कहानी कहने दो

रुकना तो बस
मौत की निशानी है
चलना ही बस,
जिंदगी की
अमर कहानी है,

बनकर बच्चे का अल्हड़पन,
फिर एक उमड़ता सा यौवन,

हर पचपन की गहराई में,
पतझड़ में उजडी़ अमराई मैं
झुर्रियाँ ओढे़ गालों के पीछे से
रोज-रोज झड़ते
बालों के नीचे से
इनकी, चाँदी सी
सफेदी के पीछे से,
ताकते से, झाँकते से,
चोरी-चोरी, चुपके-चुपके,
उम्र के इस कड़वे सच से
लुकते-छुपते,
बार-बार दस्तक देता,
कभी घुमड़ता सा बचपन,
बनकर हर एक पचपन में
आ सिमटता सा बचपन

इसको, बनकर मौजों की
एक रवानी, रहने दो
बनकर नदिया सी
दीवानी, बहने दो


वो बीता कल,
बन अतीत,
बस बीतता सा,
वो रीता कल,
और वो अगला कल,
हाँ, मन को अटकाने वाला
वो पगला कल,

ये दोनों तो
वहीं रहेंगे
अपनी-अपनी ही जगह
आओ, हम सब एक वजह,
खुशनुमा अहसासों के
दामन में सिमटी
खूबसूरत एक वजह,
लमहा-लमहा जीने की,
ढूँढ-ढूँढ कर
जिंदगी को जीने दो

हर उतार पर,
हर चढा़व पर,
इस टेढी़-मेढी़
पगडंडी के
हर पडा़व पर

खुद के ही
कदमों का सरगम
सुन-सुनकर,
लमहा-लमहा,
टूट-टूटकर,
इन राहों पर
बिखरी-बिखरी
हर कली को
एक-एक करके
हरदम चुन-चुनकर

किस्मत की उस
अंजुलि से छलकती,
इन पर ढलकती
वक्त की इस ओस की
बूँद-बूँद,
बस घूँट-घूँट कर
पीने दो

इसकी कड़वी सच्चाई सी,
हर मिलन के बाद
जुदाई की तनहाई सी,
इस जिंदगी की रस्म को,
इसके हर एक जख्म को,
इसकी हर एक बिखरन को,
इसकी हर एक उधड़न को
सब्र के नाजुक धागे से
सीने दो

उम्र के धागे में
साँसों की माला सी
बँधी हुई,
इन दो कलों के कंधों पर
आज बनकर लदी हुई
इस जिंदगी को
आज, बस आज
बनकर जीने दो

खुदा के नूर सा,
बहता हुआ
अहसास बनकर जीने दो

छोटी-छोटी सी खुशियों में
महकता सा,
चहकता सा,
सिमटकर रहता हुआ
एक राज बनकर जीने दो

जिंदगी तो आज में ही
जिंदा रहती है,
इसको बस एक आज
बनकर जीने दो


द्वारा: सुधीर अधीर

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Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 4 years ago

वाह बहुत खूब

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