कहानीहास्य व्यंग्य
हम फिर से आ गये..... जिज्जी की कहानी लेकर। कुछ भी कहो, पहले अध्याय में हमारी जिज्जी बड़ी फेमस हो गयी। धमाका भी गजब का ही कर दिया था। कुछ भी कहो हम तो गऊ है गऊ जिज्जी की हर बात सुन लेते है। नहीं तो भूकम्प ना आजाये घर में। तो हुआ क्या। ऐसे दिदै फाड़ - फाड़कर कहानी पढोगे तो क्या मज़ा? थोड़े चटकारे लो, आखिर जिज्जी है। सिलेंडर तो जिज्जी के घर पहुंच गया। कुछ दिन बाद जिज्जी मिली बाज़ार में। कसम से हम तो पीठ घुमाकर उल्टा ही सरकने वाले थे। पर पीछे से आवाज आई।
“ए... शशि, तनिक ठहरो तो”
हम वही रुक गए! इससे पहले की मुंह घुमाकर पलटते उसके पहले जिज्जी नामक तूफान हमारे सामने खड़ा था। अब हमसे बोलते भी न बने और कहते भी न बने। जिज्जी बोल पड़ी
“ हमें मालूम है तुम हमे पसन्द नही करती”।
“नही जिज्जी ऐसी कोई बात नही है”
हम बोल पड़े जिज्जी ने फिर मगरमच्छ के आँसुओ की झड़ी लगा दी।
"तुझे मालूम था हम तुझे पीछे से आवाज दे रहे है। तू जानबूझकर नही सुनी, कहीं जिज्जी गले ना पड़ जाएं इसलिये। हमारी माँ होती तो हमारे साथ ऐसे अन्याय नही होने देती तुम्हारा बस चले तो हमे घर भी न बुलावो वो तो हम भैया के दम पर आजाते है नही तो तुम बु हु हु......”।
साड़ी में मुँह को छुपाते हुए झूठे आंसू बहाते हुए बोली। हम मन ही मन सोच रहे थे (हे भगवान, परमात्मा, इनकी नौटँकी खत्म हो तो हम कुछ बोले। इतना पानी तो भगवान बादलों में से बरसात बनाकर भी नही बहाता होगा जितना इनकी आंखों से गिरता है। चलो वो पानी दिखता तो है नीचे गिरता हुआ जमीन भी गीली होती है। पर ये तो दिखता भी नही, कुछ गीला भी नही होता है) हमारा ध्यान उनकी बातों पर कम और आंसुओं पर phd करने में ज्यादा था। खैर जैसे ही उनकी बात खत्म हुई हम बोल पड़े "जिज्जी ऐसा ना है आपकी कसम ( भगवान भी डरते है उन्हें अपने पास बुलाने से सो यही सोचकर कसम खा ली) हम तो बस हमारा सिक्का गिर गया था वही ढूंढ रहे थे। शायद गटर में चला गया!!!!! मिल ही नही रहा है"।
“अच्छा,चल कोई ना भानु इतना कमाता है, तू रोज़ उड़ाती होगी, एक सिक्का गटर में चला गया तो कोई बात नही"
जिज्जी ने कटाक्ष करते हुए बोला। हम चुपचाप से कान दबा गए।
“अच्छा सुन वो रिक्शा वाला खड़ा है मेरे पास खुल्ले नही है पैसे दे दे उसे जाकर मैं बाद में दे दूंगी” (वो बाद उनका कभी नही आता वो अलग बात है)
जिज्जी रिक्शा वाले की तरफ इशारा करते हुए बोली। हम जैसे ही पैसे देकर आगे बढ़ने लगे जिज्जी फिर से बोल पड़ी....
“तूने खाना तो बढ़िया बनाया था, उस दिन पर तूने मान - सम्मान ना दिया हमे और हमारे घरवालों को”
अब हम सकताये से खड़े थे दिमाग के घोड़े दौड़ा रहे थे। कि कौन से मान - सम्मान में कमी कर दी। फिर पूछ बैठे,
“क्या हुआ जिज्जी ऐसा काहे कह रही हो ऐसा क्या कर दिया हमने......”
तभी तुरन्त से बोल उठी जिज्जी “ घर आये मेहमान को कपड़ा लत्ता ना दिया जाता, (फिर से मगरमच्छ के आँसू बहाते हुए) हमारी माँ होती तो खाली हाथ ना जाने देती”।
अब हम सोच से बाहर आकर बोले,
“माफ कर दो जिज्जी गलती होगयी आगे से ये गलती नही करेंगे”
“ठीक है एक शर्त पर”
जिज्जी साड़ी के पल्ले से गाल पोंछते हुए फिर पल्ले को हाथ से नीचे छोड़ते हुए बोली।
“ कौन सी शर्त जिज्जी”
हमने डरते हुए कहा (परिस्तिथि पहले ही भांप ली थी कि कुछ बम फूटने वाला है।) जिज्जी ने मौका चूक न जाये सोचकर तपाक से उत्तर दिया
“शशि हमे कुछ ज्यादा शौंक तो है नही बस तुम्हारी इज़्ज़त रह जाये ससुराल में,यही सोचकर कह रही हूँ बस कुछ नही एक्का दुक्का साड़ी दिलवा दो बाजार में खड़े हैं तो, बाकी बच्चो का सास - ससुर का सबका सामान उस दिन का हिसाब हो जाएगा”।
जिज्जी हिसाब किताब में कुछ ज्यादा ही पक्की निकली। अचरज से खड़े सोच रहे थे हम और अपने ATM Card को दया भरी नजरों से भी देख रहे थे। और मन ही मन बोल रहे थे “जिज्जी आज तो तुम दिन दहाड़े लूट गयी हमें”।-नेहा शर्मा
वाह..!! जिज्जी तो बड़ी स्नेहशीला निकलीं...!! बड़े दिनों बाद तो आयीं हैं.. बेचारी..!! 😊