कवितालयबद्ध कविता
अब हमें प्रखर रहने दो
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हमें पुलकित मन से
विचारों में बढ़ने दो
सरिता की धारा सी
अविरल ही बहने दो
लिंग विभेद ना कर
संघर्ष हमें करने दो
हम दुर्गा, हम काली हैं
उपमा में ही ना रहने दो
सदियों की बलिदानी
अब हमें ना सहने दो
काल की बेंडियो से,
उन्मुक्त हमें रहने दो
हर क्षेत्र में बढ़ती रही हूँ
निज में ज्वाला रहने दो
रोको ना कठुरघात कर
हमें सहनशील रहने दो
कंधों से कंधा मिलाये
हमें भी अब बढ़ने दो
निज सपनों की उड़ानों से
उन्मुक्त गगन में उड़ने दो
हम नभ, जल,थल में हैं
कदम से कदम बढ़ने दो
नवयुग की महिला बन
अब हमें प्रखर रहने दो
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@©✍️ राजेश कु०वर्मा 'मृदुल'
गिरिडीह (झारखण्ड)
📲 ७९७९७१८१९३