कवितागीत
बहुत बोलती हैं ये आंखे तुम्हारी
दिल में करे ये गजब बेक़रारी
मैं करता हूँ कुछ भी चाहे जहाँ भी
निगहबान होती हैं नजरें तुम्हारी
दिल में करे ये बहुत बेकरारी।
हम अपने दम पे जिन्दा ही कब थे
आखों का तेरे इनायत हुआ जो
कंपित अधर ये शब्द लड़खड़ाये
जीवन की धारा मुझमें बहाये।
बहुत बोलती हैं ये आंखे तुम्हारी
दिल में करे ये बहुत बेकरारी।
तेरे पलके नखरे उठाती हैं यूं तो
ऊपर से हमको गिराती हैं यूं तो
मगर क्या कहें है जरूरत तुम्हारी
बहुत बोलती हैं ये आंखे तुम्हारी
दिल में करे ये बहुत बेकरारी।
कि आजा तेरी आंखे चूम लूं मैं
बिना कुछ पिये ही जरा झूम लूं मैं
सागर सी गहरी बड़ी भोली-भाली
बहुत बोलती हैं ये आंखे तुम्हारी
दिल में करे ये बहुत बेकरारी।