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दहेज लेने और देने का रिवाज़ बहुत पेचीदा है। वेसे दहेज लेना और देना दोनों ही कानूनन जुर्म हैं लेकिन आज के दौर में ये जुर्म तब तक जुर्म नही कहलाता, जब तक की कोई जाकर ना बताये। मेने दहेज प्रथा को लेकर कोई ग्रन्थ या किसी किताब का अध्ययन तो नही किया लेकिन व्यावहारिक तौर पर अगर दहेज प्रथा के बारें में सोचें तो शायद विदाई के दौरान कोई भेंट या स्मृति के लिए कुछ उपहारस्वरूप दिया जाता होगा। जिसमे धीरे धीरे सामान की भी मांग होने लगी और ये बढ़ते बढ़ते दहेज प्रथा का रूप लेने लगा। वैसे ये मेरे नीजी विचार हैं, ये सही साबित हों ऐसा ज़रूरी नही।
अगर हमें दहेज प्रथा के पेचीदे रूप को देखना और समझना है तो इसे छोटे स्तर से समझना होगा। समाज का वो छोटा स्तर जो इस प्रथा से सबसे ज्यादा ग्रसित है। क्या क्या दिया, कितने सामान दिए , कौन सा फ्रिज मिला, कौन सी अलमारी दी, कौन सी गाड़ी दी, बाइक दी कि कार दी, कितने रुपये दिए वगैरह वगैरह की चीजें। ऐसा लगता है कि ये एक सौदा है , जिसमें बिना कुछ कहें यह जता दिया जाता है कि तुम हमे ये ये सामान दोऔर हम तुम्हारी बेटी को खुश रखेंगे। पर किसीका तो इतने से भी पेट नही भरता। जब तक मोटी धन राशि न मीले तो दहेज, दहेज कहां कहलाये।
अब में आपके सामने दहेज के पेचीदे रूप को समझने के लिए कुछ तथ्य रखता हूँ।
सबसे पहला तथ्य- जब रिश्ता बंधता है तो गुपचुप तरीके से दहेज की बातें भी उठने लगती हैं। क्या क्या और कितना चाहिए, हिचहिचाते हुए ये भी कह दिया जाता है। पर अधिकतर मामलों में लड़के वाले दयालुता दिखाते हुए सामान के बदले केवल एक गाड़ी की मांग कर देते हैं। चलो कोई बात नही, लड़की पक्ष ने किश्तों पर एक गाड़ी निकलवा भी ली, पर किसी रिश्ते में तो गाड़ी को मना करके सीधे कार या बाइक का मॉडल बताते हुए उतने ही पेसौं की फरमाइश कर देते हैं। अब चाहें इसमे लड़की वाले कंगाल ही क्यों ना हो जाएं, पर क्या करें दहेज देना है तो देना है।
दूसरा तथ्य- यह तथ्य मुझे दहेज प्रथा को ढकने के जैसा लगता है। मेने आज के युवा विचारकों से सुना है की दहेज तो इसलिए दिया जाता है ताकि ससुराल में लड़की को कोई परेशानी ना हो। शायद ये तथ्य आगे भविष्य में दहेज के पक्ष रखें।
तीसरा तथ्य- इस तथ्य में लड़के की काबिलियत को गिनाया जाता है। अगर लड़का सरकारी जॉब पर है तो दहेज तो आएगा ही आएगा लेकिन 5-10 लाख रुपये तो कहीं नही गए। छोटे परिवार में तो ये कीमत लाखों में है, बड़े परिवारों में तो करोड़ों में होगी। पर इसके बिल्कुल उलट , चाहें लड़का 8वीं पास हो उसको भी दहेज भर भर के मिलता है…..क्यों? कैसे? तब एक ही मानसिकता समझ में आती है कि दहेज देना है तो देना है।
कभी कभी तो ऐसा लगता है कि ये एक ऐसी मानसिकता है जिसे अक्ल पर ताला लगाकर स्वीकार लिया गया है। मुझे वर्षों पहले अपने गांव की एक शादी याद है। लड़की के पिता के तन पर ढंग के कपड़े नही थे और पैरों में चप्पल थी । लेकिन दहेज तो दहेज है। अगर वो सामान रिश्तेदारों के द्वारा दिए हुए हों तो कोई नही, पर गुस्सा आता है अपने इस समाज पर जहां आज एक परिवार दहेज देने के लिए मजबूर होता है तो कल वही परिवार दहेज लेने के लिए आगे आ जाता है। इससे यही साबित होता है कि दहेज सिर्फ और सिर्फ एक लालच है।
शिवम राव मणि