कवितालयबद्ध कविता
डायरी के पन्नों में सिमट न सका मेरा प्यार,
अनकहे किस्से का अंत नहीं होना था...
सोचते
सोचते जब गिरा तुम्हारी यादों के छाँव में,
तो मुझे ऐसे ही ख़ामोखा नहीं सोना था...
मुझे करना था सफ़र उस हमसफ़र के यादों के साथ,
जिससे कभी प्रेम का ये किस्सा शुरू हुआ था,
दूर कहीं आशियाने में चिड़ियों की तरह,
मैं आसमां में खोया हुआ था...
मुझे भी लौटना था अपने घरौंदे में,
मुझे मेरी माँ,बच्चों के पास होना था..
उदास हुआ एक पल के लिए,
एक पल के लिए अफ़सोस हुआ,
उम्मीद पर हौंथड़े से प्रहार भी तभी होना था,
किसी ने दिल की बात जी भर कर ज़ाहिर की,
अफ़सोस इधर किसी और को होना था,
दस्तक थी ,
या फिर इश्क़ ...
कहना थोड़ा मुश्किल है ...
जो भी हो...
दिल तो अब उसी को देना था..
मन हुआ हज़ारों दफ़ा,
द्वंद चलता रहा,
दिल प्रेरित करता,
दिमाग़ मना करता रहा...
इसी जद्दोजहद में कब सवेरा हुआ,
नहीं मालूम
लेकिन उस महबूब को महबूब कहने का हक़ सिर्फ़ अब मेरा था,
अगले दिन की आवाज़ में उसके कइयों सूरज का सवेरा था,
शिकायतें और माफीनामा से सफ़र शुरू,
बातें चार फिर उसको भी इश्क़ होना था,
बस उम्मीद इतनी सी ,
जुदा न होकर एक दूसरे की ज़िन्दगी होना था।
✍️ गौरव शुक्ला'अतुल'