कहानीलघुकथा
चरमराते उस दरवाजे के अंदर न जाने गोपू के कितने अरमान दफ़न हो चुके थे।बड़ा ही बदनसीब था,पैदा हुआ तो पिता चल बसे,पर माँ को तनिक भी दुःख न था।सोचती मेहनत-मजदूरी कर जैसे-तैसे पाल लेगी,बेटे को।कम से कम पति की बुरी आदतों के साए से तो बचा रहेगा।
गरीबी की चोट बहुत गहरा घाव लिए होती है।गोपी को बहुत प्यार देती।मेहनत-मजदूरी कर पालती लेकिन गरीबी,दुःख और तकलीफ का टीका उसके माथे से कभी मिटा न पाई।दस-पंद्रह साल का होते-होते मांँ का दाँया हाथ बन गया।उसके मना करने के बाद भी काम में उसका हाथ बंँटाने लगा। एक दिन प्रकृति की मार ऐसी पड़ी कि जिस पत्थर की खान में वो काम करती थी,वह बंद हो गई और उसे निकाल दिया गया।बेटा किसी सेठ के यहांँ काम संभालने लगा।वहांँ उसे मजदूरी कर दो -टाइम का खाना,कपड़े-लत्ते और कुछ पैसा- टका मिल जाता।माँ उसे छोटी उम्र में काम पर जाता देख दुख,तकलीफ से बीमार पड़ गई।अब वो जब भी काम पर जाता,बीच-बीच में आ माँ को संभाल जाता।दरवाजे की चर्र-चर्र की आवाज़ से मांँ के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ जाती।मुस्कुरा कहती,"आ गया गोपू,देख खाना बना दिया है।खाकर जाना।"
जवाब में गोपू कहता,"देखना माँ,एक दिन तेरे लिए महल बनाऊंँगा फिर तू चैन की नींद सोएगी।"
आज अपनी सफलता की पहली उड़ान भर घर पहुँचा है।मालिक ने काम से खुश हो अपने बेटे की पुरानी साईकल ठीक करवा उसे जो दे दी है।अब टूटे-फूटे घर की मरम्मत और माँ की साड़ी का अरमान है।
बहुत दिनों से खाँसी थी सो काम पर भी न जा सका।आज मालिक ने हर-हालत में काम पर आने की चेतावनी दी है।बड़ी मुश्किल से उठ वहाँ पहुँचा तो जाते ही उल्टी हो गई।लोगों की राय से मालिक ने उसी वक्त उसकी पगार व इलाज के पैसे दे उसे काम से सदा के लिए छुट्टी दे दी।पता चला टीबी हो गई है।
आज तीन-दिन से दरवाजा यूँ ही बंद रहता है।माँ हिम्मत कर आस-पास जा,दो जून की रोटी का जुगाड़ कर लेती है।सारे दिन गोपू खटिया पर जीर्ण-अवस्था में पड़ा रहता है।अब दरवाज़े की चर्र-चर्र भी नहीं होती।
दुख से व्याकुल माँ कहती है,"गरीब माथे पर गरीबी का तिलक लगा पैदा होता है और वैसे ही मर जाता है।दरवाजे की चर्र-चर्र ही तो हमारी किस्मत है।"
©मीताजोशी
बहुत मार्मिक रचना।क्या लिखूं दुखद या भावुक समझ नहीं आ रहा।बहुत खूब👏👏👏
बहुत ही खूबसूरत कहानी। एक मां की अपने बेटे के प्रति प्यार की। दिल को छू लेने वाली कहानी 👍